।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण एकादशी, वि.सं. २०७६ शुक्रवार
योगिनी एकादशी-व्रत (सबका)
             वास्तविक गुरु
        

भगवान्‌की जगह अपनी पूजा करवाना पाखण्डियोंका काम है । जिसके भीतर शिष्य बनानेकी इच्छा है, रुपयोंकी इच्छा है, मकान (आश्रम आदि) बनानेकी इच्छा है, मान-बड़ाईकी इच्छा है, अपनी प्रसिद्धिकी इच्छा है, उसके द्वारा दूसरेका कल्याण होना तो दूर रहा, उसका अपना कल्याण भी नहीं हो सकता‒

शिष शाखा सुत वितको तरसे,
परम    तत्त्वको  कैसे   परसे ?

उसके द्वारा लोगोंकी वही दुर्दशा होती है, जो कपटी मुनिके द्वारा राजा प्रतापभानुकी हुई थी (देखें‒मानस, बाल.१५३-१७५) । कल्याण तो उनके संगसे होता है, जिनके भीतर सबका कल्याण करनेकी भावना है । दूसरेके कल्याणके सिवाय जिनके भीतर कोई इच्छा नहीं है । जो स्वयं इच्छारहित होता है, वही दूसरेको इच्छारहित कर सकता है । इच्छावालेके द्वारा ठगाई होती है, कल्याण नहीं होता ।

यह सिद्धान्त है कि जो दूसरेको कमजोर बनाता है, वह खुद कमजोर होता है । जो दूसरेको समर्थ बनाता है, वह खुद समर्थ होता है । जो दूसरेको चेला बनाता है, वह समर्थ नहीं होता । जो गुरु होता है, वह दूसरेको भी गुरु ही बनाता है । भगवान्‌ सबसे बड़े हैं, इसलिये वे कभी किसीको छोटा नहीं बनाते । जो भगवान्‌के चरणोंकी शरण हो जाता है, वह संसारमें बड़ा हो जाता है । भगवान्‌ सबको अपना मित्र बनाते हैं, अपने समान बनाते हैं, किसीको अपना चेला नहीं बनाते । जैसे, निषादराज सिद्ध भक्त था, विभीषण साधक था और सुग्रीव भोगी था, पर भगवान्‌ रामने तीनोंको ही अपना मित्र बनाया । अर्जुन तो अपनेको भगवान्‌का शिष्य मानते हैं‒ ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (गीता २/७), पर भगवान्‌ अपनेको गुरु न मानकर मित्र ही मानते हैं‒ ‘भक्तोऽसि मे सखा चेति’ (गीता ४/३), ‘इष्टोऽसि’ (गीता १८/६४) । वेदोंमें भी भगवान्‌को जीवका सखा बताया गया है‒

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
                            (मुण्डक. ३/१/१, श्वेताश्वतर. ४/६)

‘सदा साथ रहनेवाले तथा परस्पर सखाभाव रखनेवाले दो पक्षी‒जीवात्मा और परमात्मा एक ही वृक्ष‒ शरीरका आश्रय लेकर रहते हैं ।’

जो खुद बड़ा होता है, वह दूसरेको भी बड़ा ही बनाता है । जो दूसरेको छोटा बनाता है, वह खुद छोटा होता है । जो वास्तवमें बड़ा होता है, उसको छोटा बननेमें लज्जा भी नहीं आती । क्षत्रियोंके समुदायमें, अठारह अक्षौहिणी सेनामें भगवान्‌ घोड़े हाँकनेवाले बने । अर्जुनने कहा कि दोनों सेनाओंके बीचमें मेरा रथ खड़ा करो तो भगवान्‌ शिष्यकी तरह अर्जुनकी आज्ञाका पालन करते हैं । ऐसे ही पाण्डवोंने यज्ञ किया तो उसमें सबसे पहले भगवान्‌ श्रीकृष्णका पूजन किया गया । परन्तु उस यज्ञमें ब्राह्मणोंकी जूठी पत्तलें उठानेका काम भी भगवान्‌ने किया । छोटा काम करनेमें भगवान्‌को लज्जा नहीं आती । जो खुद छोटा होता है, उसीको लज्जा आती है और भय लगता है कि कोई मेरेको छोटा न समझ ले, कोई मेरा अपमान न कर दे ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे