।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, वि.सं. २०७६ शनिवार
गुरु बननेका अधिकार किसको ?
        

गुरुकी महिमा गोविन्दसे भी अधिक बतायी गयी है, पर यह महिमा उस गुरुकी है, जो शिष्यका उद्धार कर सके । श्रीमद्भागवतमें आया है‒

                         गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात्
                     पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात् ।
                        दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च सा स्या-
                       न्न     मोचायेद्यः      समुपेतमृत्युम् ॥
                                                           (५/५/१८)

‘जो समीप आयी हुई मृत्युसे नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है ।’

इसलिये सन्तोंकी वाणीमें आया है‒

चौथे पद चीन्हे बिना शिष्य करो मत कोय ।

तात्पर्य है कि जबतक अपनेमें शिष्यका उद्धार करनेकी ताकत न आये, तबतक कोई गुरु मत बनो । कारण कि गुरु बन जाय और उद्धार न कर सके तो बड़ा दोष लगता है‒

हरइ सिष्य धन सोक न हरई ।
 सो गुरु घोर नरक महुँ  परई ॥
                                      (मानस, उत्तर ९९/४)

वह घोर नरकमें इसलिये पड़ता है कि मनुष्य दूसरी जगह जाकर अपना कल्याण कर लेता, पर उसको अपना शिष्य बनाकर एक जगह अटका दिया ! उसको अपना कल्याण करनेके लिये मनुष्यशरीर मिला था, उसमें बड़ी बाधा लगा दी ! जैसे एक घरके भीतर कुत्ता आ गया तो घरके मालिकने दरवाजा बन्द कर दिया । घरमें खानेको कुछ था नहीं और दूसरी जगह जा सकेगा नहीं । यही दशा आजकल चेलेकी होती है । गुरुजी खुद तो चेलेका कल्याण कर सकते नहीं और दूसरी जगह जाने देते नहीं । वह कहीं और चला जाय तो उसको धमकाते हैं कि मेरा चेला होकर दूसरेके पास जाता है ! श्रीकरपात्रीजी महाराज कहते थे कि जो गुरु अपना शिष्य तो बना लेता है, पर उसका उद्धार नहीं करता, वह अगले जन्ममें कुत्ता बनता है और शिष्य चींचड बनकर उसका खून चूसते हैं !

मन्त्रिदोषश्च राजानं जायादोषः पतिं यथा ।
तथा प्राप्नोत्यसन्देहं  शिष्यपापं  गुरुं  प्रिये ॥
                                                 (कुलार्णवतन्त्र)

‘जिस प्रकार मन्त्रीका दोष राजाको और स्त्रीका दोष पतिको प्राप्त होता है, उसी प्रकार निश्चय ही शिष्यका पाप गुरुको प्राप्त होता है ।’

दापयेत्  स्वकृतं  दोषं  पत्नी  पापं  स्वभर्तरि ।
तथा शिष्यार्जितं पापं गुरुमाप्नोति निश्चितम् ॥
                                                        (गन्धर्वतन्त्र)


‘जैसे स्त्रीका दोष और पाप उसके स्वामीको प्राप्त होता है, वैसे ही शिष्यका अर्जित पाप गुरुको अवश्य ही प्राप्त होता है ।’