(८१)
एक-एक व्यक्ति खुद सुधर जाय तो समाज सुधर जायगा ।
(८२)
अब मैं पुनः पाप नहीं करूँगा‒यह असली पापका प्रायश्चित है ।
(८३)
नाशवान्में अपनापन अशान्ति और बन्धन देनेवाला है ।
(८४)
अगर अपनी सन्तानसे सुख चाहते हो तो अपने माता-पिताकी सेवा करो ।
(८५)
मुझे
सुख मिल जाय‒यह सब पापोंकी जड़ है ।
(८६)
जहाँ लौकिक सुख मिलता हुआ दीखे, वहाँ समझ लो कि कोई खतरा है !
(८७)
अपना जीवन अपने लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंके हितके लिये है ।
(८८)
भगवन्नामका जप और कीर्तन‒दोनों कलियुगसे रक्षा करके उद्धार करनेवाले
हैं ।
(८९)
जबतक संसारमें आसक्ति है, तबतक भगवान्में असली प्रेम नहीं है ।
(९०)
दूसरेके
दुःखसे दुःखी होना सेवाका मूल है ।
(९१)
किसीके अहितकी भावना करना अपने अहितको निमन्त्रण देना है ।
(९२)
वस्तु-व्यक्तिसे सुख लेना महान् जड़ता है ।
(९३)
जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी-न-किसीके पराधीन होना ही पड़ेगा ।
(९४)
जो दूसरेको दुःख देता है, उसका भजनमें मन नहीं लगता ।
(९५)
जो
हमसे कुछ भी चाहता है, वह हमारा गुरु कैसे हो सकता है ?
(९६)
सन्तोषसे काम, क्रोध और लोभ‒तीनों नष्ट हो जाते हैं ।
(९७)
अपने लिये सुख चाहना आसुरी, राक्षसी वृत्ति है ।
(९८)
मिले हुएको अपना मत मानो तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है ।
(९९)
अपने सुखसे सुखी होनेवाला कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता ।
(१००)
याद
रखो, भगवान्का प्रत्येक विधान आपके परम हितके लिये है ।
नारायण
! नारायण !! नारायण !!!
‒
‘सार-संग्रह’ पुस्तकसे
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