मैं योगी हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भक्त हूँ,
मैं साधक हूँ‒यह साधकका स्थूलशरीर नहीं है, प्रत्युत भावशरीर है । स्थूलशरीर योगी, जिज्ञासु अथवा भक्त नहीं होता । अगर साधकमें
पहले ही यह भाव हो जाय कि ‘मैं संसारी नहीं हूँ, मैं तो साधक हूँ’ तो उसका साधन
बड़ा तेज चलेगा । जैसे, विवाहके समय जब लड़का ‘दूल्हा’ बन जाता है, तब उसकी चाल
बदल जाती है । कारण कि उसकी अहंतामें यह बात आ जाती है कि ‘मैं तो दूल्हा हूँ’ ।
इसी तरफ साधककी अहंतामें भी ‘मैं साधक हूँ’‒यह बात आनी चाहिये । अगर अहंतामें ‘मैं
संसारी हूँ’‒यह बात बैठी रहेगी तो संसारका काम बढ़िया होगा[1], साधन बढ़िया नहीं होगा । जो बात अहंतामें आ जाती है, उसको
करना बड़ा सुगम हो जाता है । इसलिये साधकके लिये अपनी अहंताको बदलना बहुत आवश्यक है
। जो
सेवक, जिज्ञासु या भक्त बनकर साधन नहीं करता, उसका किया हुआ निरर्थक तो नहीं जाता,
पर उसकी सिद्धि वर्तमानमें नहीं होती । अतः मैं साधक हूँ, मैं कर्मयोगी
हूँ, मैं ज्ञानयोगी हूँ अथवा मैं भक्तियोगी हूँ‒ऐसा मानकर साधन करना चाहिये ।
कर्मयोगका एक नाम ‘सेवा’ है । इसलिये कर्मयोगके साधकको ‘मैं
सेवक हूँ’ यह बात अहंतामें लानी चाहिये । ‘मैं सेवक हूँ’‒इस अहंतासे यह बात पैदा
होगी कि मेरा काम सेवा करना है, कुछ चाहना मेरा काम नहीं है । साधकमात्रके लिये यह खास बात है कि मेरेको संसारसे कुछ लेना
नहीं है, मेरेको स्वार्थी, भोगी नहीं बनना है । संसारका सुख लेनेके लिये मैं साधक
नहीं हूँ । जो सुख चाहता है, वह सेवक नहीं होता[2] । कोई-सा साधक हो, उसको पहलेसे ही सुखको तिलांजलि देनी
पड़ेगी । साधकका काम साधन करना है, सुख भोगना नहीं । जो
भोगी होता है, वह साधक नहीं होता । भोगी रोगी होता है, योगी नहीं होता । भोगीको
दुःख पाना ही पड़ता है । वह दुःखसे कभी बच सकता ही नहीं ।
सेवक होता है, जो हर समय सेवा करता है । वह भोजन करे तो भी सेवा, शौच-स्नान
करे तो भी सेवा, कपड़े धोये तो भी सेवा, व्यापर करे तो भी सेवा; जो भी काम करे सब
सेवाभावसे करे । परन्तु ऐसा तब होगा, जब उसके भीतर यह भाव रहे कि ‘मैं सेवक ही
हूँ’ । अगर उसमें ‘मैं मनुष्य हूँ’ अथवा ‘मैं ब्राह्मण हूँ’, ‘मैं वैश्य हूँ’,
‘मैं गृहस्थ हूँ’, ‘मैं साधु हूँ’ आदि भाव पहले हैं और ‘मैं सेवक हूँ’ यह भाव पीछे
है तो उससे कर्मयोग बढ़िया नहीं होगा । कर्मयोगीमें ‘मैं सेवक हूँ’ यह भाव पहले और
‘मैं मनुष्य हूँ’ आदि भाव पीछे रहने चाहिये । ऐसे ही ‘मैं भक्त हूँ’, ‘मैं
जिज्ञासु हूँ’ अथवा ‘मैं साधक हूँ’‒यह भाव पहले रहना चाहिये । जैसे ब्राह्मणमें
‘मैं ब्राह्मण हूँ’ यह भाव (ब्राहमणपना) हरदम जाग्रत् रहता है, ऐसे ही साधकमें ‘मैं साधक हूँ’ यह भाव हरदम जाग्रत् रहना चाहिये ।
ऐसा होनेसे मनुष्यभाव, शरीरभाव मिट जाता है । ‘मैं मनुष्य हूँ’‒यह पाञ्चभौतिक
मनुष्यशरीर है और ‘मैं साधक (सेवक, जिज्ञासु अथवा भक्त) हूँ’‒यह भावशरीर है । भावशरीरकी
मुख्यता होनेसे साधन निरन्तर होता है ।
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