कर्मयोगी स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंकी सेवा करता
है । शरीरको भोगी, आलसी, अकर्मण्य नहीं बनने देना ‘स्थूलशरीर’ की सेवा है ।
विषयोंका चिन्तन न करना, सबके सुख और हितका चिन्तन करना ‘सूक्ष्मशरीर’ की सेवा है
। समाधि लगाना, अपना सिद्धान्तपर अचलरूपसे दृढ़ रहना, अपने कल्याणके निश्चयसे
विचलित न होना ‘कारणशरीर’ की सेवा है । स्थूलशरीरसे
होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली
स्थिरता‒तीनोंको ही ‘अपना’ और ‘अपने लिये’ न मानना उनकी सेवा है । कारण कि
स्थूलशरीरकी स्थूल जगत्के साथ, सूक्ष्मशरीरकी सूक्ष्म जगत्के साथ और कारणशरीरकी
कारण जगत्के साथ एकता है । इसलिये शरीरको संसारसे अलग मानना बहुत बड़ी गलती है । शरीर और संसारको ‘अपना’ तथा ‘अपने लिये’ मानना बहुत घातक है ।
ऐसा माननेवाला साधक नहीं बन सकता, भले ही उम्र बीत जाय ! इसलिये कर्मयोगीको ऐसा मानना चाहिये कि
मैं संसारका हूँ और संसारकी सेवाके लिये हूँ । इस विषयमें एक दृष्टान्त है
। लोगोंमें यह बात प्रचलित है कि रुपयोंके पास रूपया आता है; क्योंकि जिनके पास
रुपये होते हैं, वे उन रुपयोंसे कई नये काम-धन्धे शुरू करके और रुपये कमा लेते हैं
। एक आदमीने जब सुना कि रुपयेके पास रुपया आता है तो वह अपने हाथमें एक रुपयेका सिक्का बजाते हुए बाजारमें घूमने लगा । एक दूकानमें रुपयोंकी ढेरी
पड़ी थी तो बजाते समय रुपया जाकर उस ढेरीपर गिर गया ! वह बोला कि बात क्या है ?
रुपयेके पास रुपया आना चाहिये ? तो दूकानदार बोला कि हाँ, रुपयेके पास ही रुपया
आया है । तुम्हारा रुपया छोटा है, ढेरीके रुपये बड़े हैं तो बड़ेके पास छोटा जायगा
कि छोटेके पास बड़ा जायगा ? छोटा ही बड़ेके पास जायगा । इसी
तरह संसार शरीरके लिये नहीं है, प्रत्युत शरीर संसारके लिये है । संसार हमारे लिये
नहीं है, प्रत्युत हम संसारके लिये हैं । इसलिये साधकके भीतर यह भाव रहता है कि
मैं संसारके काम आऊँ ।
साधकको चाहिये कि वह चाहे तो मैंपनको शुद्ध कर ले,
चाहे मैंपनको मिटा दे, चाहे मैंपनको बदल दे । कर्मयोगी मैंपनको शुद्ध करता है, ज्ञानयोगी मैंपनको मिटाता
है और भक्तियोगी मैंपनको बदलता है । इसलिये कर्तृत्वाभिमान रहते हुए भी मनुष्य
कर्मयोग और भक्तियोगका अनुष्ठान कर सकता
है । परन्तु कर्तृत्वाभिमान रहते हुए ज्ञानयोगका अनुष्ठान नहीं कर सकता । वह
ज्ञानकी बातें भले ही सीख ले, पर सिद्धि नहीं होगी । कर्मयोग और भक्तियोगमें पहले
कामना मिटती है, पीछे अहंकार मिटता है । ज्ञानयोगमें पहले अहंकार मिटता है, पीछे
कामना स्वतः मिटती है । तात्पर्य है कि कर्मयोग और
भक्तियोग अहंता रहते हुए भी चल सकते हैं, पर ज्ञानयोग अहंता रहते हुए नहीं चल सकता
। इसलिये अहंकारके रहते हुए ज्ञानयोग कष्टपूर्वक चलता है‒ ‘अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते’ (गीता १२/५)
और अहंकार मिटनेपर सुखपूर्वक चलता है‒ ‘सुखेन
ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते’ (गीता ६/२८) । परन्तु जो भोग भी भोगता
रहे, सुख भी भोगता रहे, लोभ भी करता रहे, रुपये भी इकठ्ठा करता रहे, ऐश-आराम भी
करता रहे, उसको कोई भी योग सिद्ध नहीं होता । वह साधक भी नहीं हो सकता, सिद्ध होना
तो दूर रहा !
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