।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण सप्तमी, वि.सं. २०७६ बुधवार
       साधकोपयोगी अमूल्य बातें
        

कर्मयोगी स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒तीनों शरीरोंकी सेवा करता है । शरीरको भोगी, आलसी, अकर्मण्य नहीं बनने देना ‘स्थूलशरीर’ की सेवा है । विषयोंका चिन्तन न करना, सबके सुख और हितका चिन्तन करना ‘सूक्ष्मशरीर’ की सेवा है । समाधि लगाना, अपना सिद्धान्तपर अचलरूपसे दृढ़ रहना, अपने कल्याणके निश्चयसे विचलित न होना ‘कारणशरीर’ की सेवा है । स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता‒तीनोंको ही ‘अपना’ और ‘अपने लिये’ न मानना उनकी सेवा है । कारण कि स्थूलशरीरकी स्थूल जगत्‌के साथ, सूक्ष्मशरीरकी सूक्ष्म जगत्‌के साथ और कारणशरीरकी कारण जगत्‌के साथ एकता है । इसलिये शरीरको संसारसे अलग मानना बहुत बड़ी गलती है । शरीर और संसारको ‘अपना’ तथा ‘अपने लिये’ मानना बहुत घातक है । ऐसा माननेवाला साधक नहीं बन सकता, भले ही उम्र बीत  जाय ! इसलिये कर्मयोगीको ऐसा मानना चाहिये कि मैं संसारका हूँ और संसारकी सेवाके लिये हूँ । इस विषयमें एक दृष्टान्त है । लोगोंमें यह बात प्रचलित है कि रुपयोंके पास रूपया आता है; क्योंकि जिनके पास रुपये होते हैं, वे उन रुपयोंसे कई नये काम-धन्धे शुरू करके और रुपये कमा लेते हैं । एक आदमीने जब सुना कि रुपयेके पास रुपया आता है तो वह अपने हाथमें एक रुपयेका सिक्‍का बजाते हुए बाजारमें घूमने लगा । एक दूकानमें रुपयोंकी ढेरी पड़ी थी तो बजाते समय रुपया जाकर उस ढेरीपर गिर गया ! वह बोला कि बात क्या है ? रुपयेके पास रुपया आना चाहिये ? तो दूकानदार बोला कि हाँ, रुपयेके पास ही रुपया आया है । तुम्हारा रुपया छोटा है, ढेरीके रुपये बड़े हैं तो बड़ेके पास छोटा जायगा कि छोटेके पास बड़ा जायगा ? छोटा ही बड़ेके पास जायगा । इसी तरह संसार शरीरके लिये नहीं है, प्रत्युत शरीर संसारके लिये है । संसार हमारे लिये नहीं है, प्रत्युत हम संसारके लिये हैं । इसलिये साधकके भीतर यह भाव रहता है कि मैं संसारके काम आऊँ ।


साधकको चाहिये कि वह चाहे तो मैंपनको शुद्ध कर ले, चाहे मैंपनको मिटा दे, चाहे मैंपनको बदल दे । कर्मयोगी मैंपनको शुद्ध करता है, ज्ञानयोगी मैंपनको मिटाता है और भक्तियोगी मैंपनको बदलता है । इसलिये कर्तृत्वाभिमान रहते हुए भी मनुष्य कर्मयोग  और भक्तियोगका अनुष्ठान कर सकता है । परन्तु कर्तृत्वाभिमान रहते हुए ज्ञानयोगका अनुष्ठान नहीं कर सकता । वह ज्ञानकी बातें भले ही सीख ले, पर सिद्धि नहीं होगी । कर्मयोग और भक्तियोगमें पहले कामना मिटती है, पीछे अहंकार मिटता है । ज्ञानयोगमें पहले अहंकार मिटता है, पीछे कामना स्वतः मिटती है । तात्पर्य है कि कर्मयोग और भक्तियोग अहंता रहते हुए भी चल सकते हैं, पर ज्ञानयोग अहंता रहते हुए नहीं चल सकता । इसलिये अहंकारके रहते हुए ज्ञानयोग कष्टपूर्वक चलता है‒ ‘अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते’ (गीता १२/५) और अहंकार मिटनेपर सुखपूर्वक चलता है‒ ‘सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते’ (गीता ६/२८) । परन्तु जो भोग भी भोगता रहे, सुख भी भोगता रहे, लोभ भी करता रहे, रुपये भी इकठ्ठा करता रहे, ऐश-आराम भी करता रहे, उसको कोई भी योग सिद्ध नहीं होता । वह साधक भी नहीं हो सकता, सिद्ध होना तो दूर रहा !