भक्त मैंपन (अहंकार) को मिटाता नहीं है, प्रत्युत बदलता है
। मैंपनको बदलना बहुत सुगम होता है । जैसे, लड़कीका विवाह होता है तो ‘मैं कुँआरी
हूँ’ यह मैंपन सुगमतासे बदल जाता है । ऐसे ही भक्त मैंपनको बदल देता है कि ‘मैं
संसारका नहीं हूँ, मैं तो भगवान्का हूँ ।’ मैंपनको बदलना सुगम भी है और श्रेष्ठ भी । मैंपनको बदलनेसे साधनमें तल्लीनता होकर अपने-आप स्वाभाविक ही
सिद्धि हो जाती है ।
साधकमें
यह बात पहले होनी चाहिये कि ऐश-आराम करना, शरीरका पालन-पोषण करना मेरा काम नहीं है
। शरीर-निर्वाहका प्रबन्ध
तो है, पर भोग भोगनेका, संग्रह करनेका,
लखपति-करोड़पति बननेका प्रबन्ध नहीं है । माँके
स्तनोंमें दूध पहले आता है, पीछे हमारा जन्म होता है । जब जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध भगवान्की तरफसे है, तो फिर भजन
क्यों नहीं करें ? यद्यपि भजनकी जिम्मेवारी मनुष्यमात्रपर है, तथापि बूढ़े,
विधवा और साधुपर विशेष जिम्मेवारी है । इन तीनोंको भगवद्भजनके सिवाय और काम ही
क्या है ? सुख भोगना, आराम करना, अनुकूलता चाहना‒इसके
लिये मनुष्यशरीर है ही नहीं‒
एहि तन कर फल बिषय न भाई ।
स्वर्गऊ स्वल्प अंत दुखदाई ॥
नर तन पाइ बिषयँ मन देहीं ।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ॥
(मानस, उत्तर॰ ४४/१)
इसलिये जो सुख-आराम, मान-बड़ाई
चाहता है, वह साधक नहीं हो सकता । वह तो भोगी है । मान-बड़ाई चाहना भी भोग है,
क्योंकि मान शरीरका और बड़ाई नामकी होती है, अपनी (स्वयंकी) नहीं । मनुष्य
मरनेके बाद भी बड़ाई चाहता है कि दो-चार पुस्तकें बना दें अथवा कोई ऐसा मकान बना
दें, जिससे लोग मेरेको याद करें । इसको मारवाड़ी भाषामें ‘गीतड़ा
और भीतड़ा’ कहते हैं । पर साधकको मान-बड़ाई, यश-कीर्तिसे दूर रहना चाहिये‒‘बिच्छू-सी बड़ाई जाके नागिनी-सी नारी है’ । उसको तो
परमात्माकी प्राप्ति करना है । स्वर्ग आदि ऊँचे लोकोंकी प्राप्ति करना भी साधकका
काम नहीं है‒‘स्वर्गऊ स्वल्प अंत दुखदाई’ । भगवान्
कहते हैं‒
न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं न
सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद् विनान्यत् ॥
(श्रीमद्भागवत ११/१४/१४)
‘स्वयंको मेरे अर्पित करनेवाला भक्त मुझे
छोड़कर ब्रह्माका पद, इन्द्रका पद, सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य, पातालादि लोकोंका
राज्य, योगकी समस्त सिद्धियाँ और मोक्षको भी नहीं चाहता ।’
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