।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण नवमी, वि.सं. २०७६ शक्रवार
       साधकोपयोगी अमूल्य बातें
        

अनेक लोगोंका यह स्वभाव होता है कि वे सेवा वहीं करते हैं, जहाँ मान-बड़ाई मिले । मान-बड़ाई, वाहवाहीके बिना वे काम कर ही नहीं सकते । कोई अच्छा काम हो जाय तो वे कहते हैं कि इसको हमने किया, पर काम बिगड़ जाय तो दूसरोंपर दोष लगाते हैं । ऐसी वृत्तिवालोंका कल्याण कैसे होगा ? सब अच्छा काम मैंने लिया‒यह ‘कैकेयीवृत्ति’ है और सब अच्छा काम दूसरोंने किया ‒यह ‘रामवृत्ति’ है । कैकेयी कहती है‒

तात बात मैं सकल संवारी    भै  मंथरा  सहाय बिचारी ॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ । भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ ॥
                                (मानस, अयोध्याकाण्ड १६०/१)

और रामजी कहते हैं‒

गुरु बशिष्ठ कुलपूज्य हमारे । इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे ॥
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे   भए समर सागर कहाँ बेरे ॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे   भरतहु  ते मोहि अधिक पियारे ॥
                                     (मानस, उत्तरकाण्ड ८/३-४)

अतः मान-बड़ाई, सुख-आराम पानेके उद्देश्यसे काम करना साधकके लिये अनुचित है ।

साधक जिस मार्गको अपना ले, उसीमें दृढ़तासे लगा रहे । फिर सुख आये या दुःख आये, प्रशंसा हो या निन्दा हो, उसकी परवाह मत करे । जितना कष्ट आता है, विपरीत परिस्थिति आती है, वह केवल हमारी उन्नतिके लिये ही आती है । इसमें एक रहस्यकी बात है कि जब हमारा साधन ठीक चलता है और ठीक चलते-चलते हम कुछ सुख भोगने लग जाते हैं और अभिमान करने लगते हैं कि मैं अच्छा साधक बन गया हूँ, तब भगवान्‌ विपरीत परिस्थिति भेजतें हैं । परन्तु हाँ, जब ज्यादा घबरा जाते हैं तो फिर भगवान्‌ अनुकूलता भेज देते हैं । समय-समयपर अनुकूलता-प्रतिकूलता भेजकर भगवान्‌ हमें चेताते रहते हैं, हमारी रक्षा करते रहते हैं ।

मेरेको कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत देना-ही-देना है‒ऐसा विचार करनेसे मनुष्य साधक बन जाता है । अगर साधक सेवक होगा तो सेवा करते-करते उसका सेवकपनेका अभिमान मिट जायगा अर्थात् सेवक न रहकर केवल सेवा रह जायगी और वह सेवारूप होकर सेव्यके साथ एक हो जायगा अर्थात् उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी । ऐसे ही अगर साधक जिज्ञासु होगा तो उसमें जिज्ञासुपनेका अभिमान मिटकर केवल जिज्ञासा रह जायगी । केवल जिज्ञासा रहते ही जिज्ञासा-पूर्ति हो जायगी अर्थात् तत्त्वज्ञान हो जायगा । इसी तरह अगर साधक भक्त होगा तो उसमें भक्तपनेका अभिमान नहीं रहेगा और वह भक्तिरूप हो जायगा अर्थात् उसके द्वारा प्रत्येक क्रिया भक्ति (भगवान्‌के लिये) ही रहेगी । भक्तिरूप होकर वह भगवान्‌के साथ अभिन्न हो जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सत्संग मुक्ताहार’ पुस्तकसे