।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल पंचमी, वि.सं. २०७६ रविवार
  साधनकी चरम सीमा
        

यह अहंकृतभाव (अहंकार) अपरा प्रकृतिका अंश है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार‒ये उत्तरोत्तर पूर्वकी अपेक्षा सूक्ष्म हैं । इनमें अहंकार सबसे अधिक सूक्ष्म है । सबसे सूक्ष्म होनेपर भी यह है प्रकृतिका अंश । यह अपरा प्रकृति ही बन्धन करनेवाली है । अपरा प्रकृतिके सिवाय स्वयंमें कोई दोष नहीं है । स्वयं सर्वथा निर्दोष और भगवान्‌का अंश है । प्रकृतिका अंश प्रकृतिमें स्थित रहता है और भगवान्‌का अंश भगवान्‌में स्थित रहता है । परन्तु जीव प्रकृतिके अंश (मन-बुद्धि-इन्द्रियों)-को अपनी तरफ खींचता है अर्थात् अपना मान लेता है ‒

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥
                                                      (गीता १५/७)

प्रकृति ईमानदार है कि अपनेमें ही स्थित रहती है, पर हम भूलसे प्रकृतिमें स्थित स्थूल-सूक्ष्म-कारणशरीरको अपना मान लेते हैं और बँध जाते हैं । स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रियाएँ, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली समाधि‒ये सब प्रकृतिमें ही हैं । हम स्वयं प्रकृतिसे अतीत हैं‒‘गुणातीतः स उच्यते’ (गीता १४/२५)हम स्वयं साक्षात् भगवान्‌के हैं । इसलिये साधकको चाहिये कि वह एक बार, सरल हृदयसे दृढ़तापूर्वक स्वीकार कर ले कि मैं केवल भगवान्‌का ही हूँ और केवल भगवान्‌ ही मेरे अपने हैं । केवल इतना ही साधकका काम है और कोई काम नहीं है ।

स्वीकृति दो बार नहीं होती, प्रत्युत एक ही बार होती है । स्वीकृतिमें अभ्यास नहीं है । विवाह होनेपर कन्या अपनेको पत्नीरूपमें स्वीकार कर लेती है तो इसके लिये उसको माला नहीं फेरनी पड़ती । स्वीकृतिमात्रसे वह पतिकी हो जाती है । ऐसे ही स्वीकृतिमात्रसे साधकका बेड़ा पार हो जायगा । परन्तु प्रायः एक बार स्वीकृति होती नहीं है । इसमें दो कारण मुख्य मालूम देते हैं ‒१-अभ्यासका महत्त्व और २-भोग तथा संग्रहकी आसक्ति ।


आजतक जितने काम किये हैं, सब अभ्याससे किये हैं । इसलिये अन्तःकरणमें यह बात बैठी हुई है कि परमात्माकी प्राप्ति भी अभ्याससे होगी । वास्तवमें अभ्याससे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । अभ्याससे नया सिखना होता है । अभ्यासमें जड़की सहायता लेनी ही पड़ती है; परन्तु परमात्माकी प्राप्ति जड़की सहायतासे नहीं होती, प्रत्युत जड़के त्यागसे होती है । जड़की सहायतासे संसारका कार्य होता है । परमात्माकी प्राप्तिमें कुछ भी करना है ही नहीं । बिना जड़की सहायतासे कुछ भी करना होता ही नहीं । परन्तु अभ्यास करनेका बहुत ज्यादा आग्रह होनेसे, अभ्यासका स्वभाव पड़ा हुआ होनेसे साधक  पूछता है कि बोलो, फिर क्या करें ? यह विषय तो जान लिया, अब क्या करें ?