।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल षष्ठी, वि.सं. २०७६ सोमवार
  साधनकी चरम सीमा
        

जैसे अभ्यास प्रिय लगता है, ऐसे भोग और संग्रह भी प्रिय लगते हैं । भोग और संग्रहकी आसक्ति जल्दी छूटती नहीं । इस आसक्तिके कारण साधनमें दृढ़ता नहीं आती‒

भोगेश्वर्यप्रसक्तानां          तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
                                                    (गीता २/४४)

‘उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें एक निश्चयवाली बुद्धि नहीं होती ।’

उपर्युक्त दो कारणोंके रहते हुए कहनेपर भी, सुननेपर भी, पढ़नेपर भी परमात्माकी स्वीकृति नहीं होती । परमात्माके अंश तो हम पहलेसे ही हैं, अंश बनना थोड़े ही है ! परन्तु ऐसा होते हुए भी हम स्वीकार नहीं करते । जो परमात्माको स्वीकार कर लेता है, उसका गोत्र बदल जाता है । वह संसारका नहीं रहता । वह ‘अच्युत गोत्र’ हो जाता है । गोस्वामीजी महाराजने भी लिखा है‒ ‘साह ही को गोतु गोतु होत है गुलामको’ (कविता उत्तर१०७)

वेदान्तके ग्रन्थोंमें भी अभ्यासकी बात आती है । श्रवण, मनन, निदिध्यासनके बाद विविध समाधियोंकी बात आती है । समाधि वास्तवमें कारणशरीरसे अभ्यास है, जिसमें समाधि और व्युत्थान‒दो अवस्थाएँ होती हैं । परमात्माको प्राप्त होनेके बाद फिर व्युत्थान नहीं होता‒ ‘सदा भवति तन्मयः ।’ पातंजलयोगदर्शनमें अभ्यासका एक लक्षण बताया है‒ ‘तत्र स्थितौ यत्नोभ्यासः ॥’ (१/१३) अर्थात् चित्तकी स्थिरताके लिये प्रयत्न करना (बार-बार चेष्टा करना) अभ्यास है ।

भगवान्‌को एक बार स्वीकार करनेका तात्पर्य है कि इसमें अभ्यास नहीं है । एक बार भी इसलिये कहा है कि हमने अपने-आपको संसारी मान रखा है । इसलिये एक बार कह दें कि मैं संसारी नहीं हूँ, मैं तो केवल भगवान्‌का हूँ और केवल भगवान्‌ ही मेरे अपने हैं । स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि कोई भी जीव क्यों न हो, वह खास परमात्माका अंश है‒ ‘अमृतस्य पुत्राः’ । जो जिसका अंश होगा, वह उसीमें लीन होगा । जैसे जलका अंश जलमें ही लीन होगा । पृथ्वीका अंश पृथ्वीमें ही लीन होगा । ऐसे ही परमात्माका अंश परमात्मामें ही लीन होगा । परमात्मामें लीन होनेपर फिर एक परमात्मा ही रहेंगे‒‘वासुदेवः सर्वम्’

यहाँ ‘वासुदेवः’ शब्द पुँल्लिंगमें होनेसे ‘वासुदेवः सर्वः’ कहना चाहिये था । परन्तु यहाँ ‘सर्वः’ की जगह ‘सर्वम्’ कहा गया है, जो नपुंसकलिंगमें है । अगर तीनों लिंगों (सर्वः, सर्वा, सर्वम्)‒का एकशेष किया जाय तो नपुंसकलिंग ‘सर्वम्’ ही एकशेष रहता है[1] । नपुंसकलिंगके अंतर्गत तीनों लिंग आ जाते हैं । अतः ‘सर्वम्’ शब्दमें स्त्री, पुरुष और नपुंसक‒सबका समाहार हो जाता है । गीतामें जगत्‌, जीव और परमात्मा‒इन तीनोंके लिये पुँल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग ‒इन तीनों ही लिंगोंका प्रयोग किया गया है[2] । इससे सिद्ध होता है कि जगत्‌, जीव और परमात्मा‒ये तीनों ही ‘सर्वम्’ शब्दके अन्तर्गत हैं । अतः तीनों लिंगोंसे कही जानेवाली सब-की-सब वस्तुएँ तथा व्यक्ति आदि एक परमात्मा ही हैं‒ ‘वासुदेवः सर्वम्’

                                                (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे


शास्त्रोंको पढ़नेसे उतना ज्ञान नहीं होता, जितना सत्संगसे होता है । शास्त्र पढ़नेवालेसे भूल हो सकती है, सत्संग करनेवालेसे नहीं ।


ज्यादा संसार कानोंके द्वारा (सुननेसे) भीतर प्रविष्ट हुआ है; अतः सत्संग सुननेसे ही संसार बाहर निकलेगा ।

मेरी ऐसी धुन है, ऐसी खोजकी प्रवृत्ति है कि जल्दी-से-जल्दी, सुगमतापूर्वक सबको कैसे परमात्मप्राप्ति हो जाय !

‒ऐसा मार्मिक एवं कल्याणकारी सत्संगका लाभ लेनेके लिये www.swamiramsukhdasji.org और www.swamiramsukhdasji.net पर प्रवचन और कल्याणकारी-पुस्तकें स्वयं पढ़ें एवं दूसरोंको भी प्रेरणा करके पुण्यभागी बने ।


[1] उदाहरणार्थ, गीतामें आया है‒ ‘यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्’ (१८/५) । इसमें ‘यज्ञः’ शब्दका प्रयोग पुँल्लिंगमें और ‘दानम्’ तथा ‘तपः’ शब्दोंका प्रयोग नपुंसकलिंगमें किया गया है । अतः एकशेषमें नपुंसकलिंग और बहुवचन ‘पावनानि’ शब्दका प्रयोग हुआ है ।

[2] द्रष्टव्य‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तककी लेख संख्या ९१‒’गीतामें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृतिकी अलिंगता’ ।