।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल सप्तमी, वि.सं. २०७६ मंगलवार
  साधनकी चरम सीमा
        

वास्तवमें यहाँ ‘सर्वम्’ कहनेकी भी आवश्यकता नहीं थी; क्योंकि वास्तवमें ‘सर्वम्’ की सत्ता ही नहीं है‒ ‘नासतो विद्यते भावः’ (गीता २/१६) । एक परमात्माके सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं । अतः वास्तवमें वासुदेव-ही-वासुदेव है, ‘सर्वम्’ है ही नहीं । परन्तु हमारी द्रष्टिमें ‘सर्वम्’ (संसार)-की सत्ता है, इसलिये हमें समझानेके लिये भगवान्‌ने ‘वासुदेवः सर्वम्’ पदोंका प्रयोग किया है, अन्यथा ‘सर्वम्’ कहनेकी जरूरत ही नहीं थी । एक भगवान्‌के सिवाय जो कुछ हम मानते हैं, वह सब-का-सब बनावटी है, कल्पित है, असली चीज एक भगवान्‌ ही हैं । यहीं हम सबको पहुँचना है ।

सर्वथा पूर्ण होते हुए भी भगवान्‌में प्रेमकी भूख है‒ ‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यकोपनिषद् १/४/३) । इसलिये भगवान्‌ प्रेम-लीलाके लिये एकसे अनेक हो जाते हैं‒

‘तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति ।’ (छान्दोग्य॰ ६/२/३)
‘सोऽकामयत् । बहु स्यां प्रजायेयेति ।’ (तैत्तिरीय. २/६)
‘एकं रूपं बहुधा यः करोति ।’ (कठोपनिषद् २/२/१२)

प्रेम-लीलाके लिये भगवान्‌ने अपने लिये तथा अपनेमेंसे जीवोंकी रचना की । परन्तु जीवने खेल-सामग्रीके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया और भगवान्‌से विमुख हो गया । तभीसे वह जन्म-मरणके चक्रमें पड़ गया ।

जबतक संसारकी कोई भी वस्तु अच्छी, प्रिय, सुन्दर लगती है, तभीतक भोगासक्ति है । इस भोगासक्तिको ही ‘काम’ कहते हैं । इस कामके रहते हुए ‘सब परमात्मा ही हैं’‒इसका अनुभव नहीं होता ।
कामबन्धनमेवैकं नान्यदस्तीह बन्धनम् ।
कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
                          (महाभारत, शान्ति. २५१/७)

‘जगत्‌में काम ही एकमात्र बन्धन है, दूसरा कोई बन्धन नहीं । जो कामके बन्धनसे छूट जाता है, वह ब्रह्मभाव प्राप्त करनेमें समर्थ हो जाता है ।’
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः ।
अथ  मर्त्योऽमृतो   भवत्यत्र   ब्रह्म   समश्नुते ॥
                         (कठ. २/३/१४; बृहद. ४/४/७)

‘साधकके हृदयमें स्थित सम्पूर्ण काम जब समूल नष्ट हो जाते हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और यही (मनुष्यशरीरमें ही) ब्रह्मका भलीभाँति अनुभव कर लेता है ।’

जबतक काम-नाशपूर्वक ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव न हो जाय, तबतक साधककी साधना अपूर्ण रहती है । साधनकी पूर्णताके लिये एकबार सरक हृदयसे दृढ़तापूर्वक स्वीकार कर ले कि ‘मैं केवल भगवान्‌का ही हूँ तथा केवल भगवान्‌ ही मेरे अपने हैं ।’ कारण कि शरीर-संसार कभी किसीके साथ रहते ही नहीं और भगवान्‌ कभी किसीका साथ छोड़ते ही नहीं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे