प्रश्न‒चोटी
रखनेसे क्या लाभ होगा ?
उत्तर‒जो लाभको देखता है, वह पारमार्थिक उन्नति कर सकता ही नहीं । लाभ देखकर ही कोई काम करोगे तो
फिर शास्त्र-वचनका, सन्त-वचनका क्या आदर हुआ ? उनकी क्या इज्जत हुई ? अपने
लाभके लिये, अपना मतलब सिद्ध करनेके लिये तो पशु-पक्षी भी कार्य करते हैं । यह
मनुष्यपना नहीं है । चोटी रखनेमें आपकी भलाई है‒ इसमें मेरेको रत्तीमात्र भी सन्देह नहीं है
। वास्तवमें हमें लाभ-हानिको न देखकर धर्मको देखना है । धर्मशास्त्रमें आया है कि बिना शिखाके जो भी यज्ञ, दान, तप,
व्रत आदि शुभकर्म किये जाते हैं, वे सब निष्फल हो जाते हैं‒
सदोपवीतिना भाव्यं
सदा बद्धशिखेन च ।
विशिखो व्युपवीतश्च यत्करोति न तत्कृतम् ॥
(कात्यायनस्मृति
१/४)
इतना ही नहीं, शिखाके बिना किये गये वे पुण्यकर्म
राक्षस-कर्म हो जाते हैं‒
विना यच्छिखया कर्म
विना यज्ञोपवीतकम् ।
राक्षसं तद्धि विज्ञेयं समस्ता निष्फला क्रियाः ॥
(व्यास)
इसलिये धर्मशास्त्रने आज्ञा दी है‒
स्नाने दाने जपे होम संध्यायां देवतार्चने ।
शिखाग्रन्थिं सदा कुर्यादित्येतन्मनुरब्रवीत् ॥
‘स्नान, दान, जप, होम, संध्या और देवपूजनके
समय शिखामें ग्रन्थि (चोटीमें गाँठ) अवश्य लगानी चाहिये‒ऐसा महाराज मनुने कहा है
।’
हिन्दूधर्मके सोलह संस्करोंमें ‘चुडाकरण संस्कार’ (मुण्डन
संस्कार)-का विशेष महत्त्व है । इस संस्कारमें शिखा धारण करनेसे दीर्ध आयु, तेज, बल
और ओजकी प्राप्ति होती है‒
दीर्घायुत्वाय बलाय वर्चसे शिखायै वषट् ।
शिखाके विशेष महत्त्वके कारण ही हिन्दुओंने यवन-शासनमें
अपनी शिखाकी रक्षाके लिये सर कटवा दिया, पर शिखा नहीं कटवायी । कितने दुःखकी बात
है कि आज हिन्दू उसी शिखाको अपने ही हाथो काट रहा हैं ! धर्मशास्त्रमें शिखा न
रखनेका प्रायश्चित बताया गया है‒
शिखां छिन्दन्ति ये मोहद् द्वेषादज्ञानतोऽपि वा ।
तप्तकृच्छ्रेण शुद्ध्यन्ति
त्रयो वर्णा द्विजातयः ॥
(लघुहारित)
‘तीनों वर्णोंके जो द्विजातिलोग मोहसे,
द्वेषसे अथवा अज्ञानसे अपनी शिखा काट देते हैं, वे तप्तकृच्छ्र-व्रत करनेसे शुद्ध
होते हैं ।’
अथ चेत् प्रमादान्निशिखं वपनं
स्यात् तत्र कौशीं शिखां ब्रह्मग्रन्थिसमन्वितां दक्षिणकर्णोपरि आशिखाबन्धादवतिष्ठेत् ॥ (काठकगुह्यसूत्र)
‘यदि कोई मनुष्य प्रमादवश शिखासहित क्षौर
(हजामत) करा ले तो वह ब्रह्मग्रन्थियुक्त कुशाकी शिखा बनाकर दाहिने कानपर तबतक
रखे, जबतक बाँधनेयोग्य शिखा न बढ़ जाय ।’
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