।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं. २०७६ गुरुवार
       अभ्याससे बोध नहीं होता

        

यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलती है और बिछुड़ती है, वह अपनी नहीं होती । शरीर मिला है और बिछुड़ जायगा, फिर वह अपना कैसे हुआ ? परमात्मा मिलने तथा बिछुड़नेवाले नहीं हैं । वे सदासे ही मिले हुए हैं और कभी बिछुड़ते ही नहीं । उनका अनुभव नहीं होनेका दुःख नहीं है, इसलिये देरी हो रही है । उनकी असली चाहना नहीं है । असली चाहना होगी तो तत्काल प्राप्ति हो जायगी । परमात्मप्राप्ति शरीरादि जड़ पदार्थोंके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत इनके त्यागसे होती है । मन-बुद्धिकी सहायतासे बोध नहीं होता, प्रत्युत इनके त्यागसे बोध होता है ।

योगदर्शनमें अभ्यासका लक्षण बताया है‒

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः । (१/१३)
                 
‘किसी एक विषयमें स्थिति प्राप्त करानेके लिये बार-बार प्रयत्न करनेका नाम अभ्यास है ।’

तत्त्वबोध किसी स्थितिका नाम नहीं है । जहाँ स्थिति होगी, वहाँ गति भी होगी‒यह नियम है । तत्त्व स्थिति और गति‒दोनोंसे अतीत है । तत्त्वमें न स्थिति है, न गति है; न स्थिरता है, न चंचलता है । जैसे भूख और प्यासके लिये अभ्यास नहीं करना पड़ता, ऐसे ही तत्त्वकी जिज्ञासाके लिये अभ्यास नहीं करना पड़ता । हमारी आदत अभ्यास करनेकी पड़ी हुई है, इसलिये अभ्यासकी बात ही हमें जँचती है ।

अभ्यासका मैं खण्डन नहीं करता हूँ । अभ्यास करते-करते और नयी स्थति होते-होते तत्त्वकी जिज्ञासा होकर उसकी प्राप्ति हो सकती है । परन्तु यह बहुत लंबा रास्ता है । कितने जन्म लगेंगे, इसका पता नहीं । अन्तमें भी जब अभ्यास छूटेगा अर्थात् जड़ता (शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि)-से हमारा सम्बन्ध छूटेगा, तब तत्त्वप्राप्ति होगी । तत्त्वप्राप्ति जड़ताके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होती है‒यह सिद्धान्त है । जड़ताकी सहायताके बिना अभ्यास हो ही नहीं सकता । अतः अभ्यासके द्वारा जड़ताका त्याग नहीं हो सकता । जिसकी सहायतासे अभ्यास करेंगे, उसका त्याग अभ्याससे कैसे होगा ? परन्तु अभ्यासकी बात हरेक आदमीके भीतर जड़से बैठी हुई है, इसलिये बोध होनेमें कठिनता हो रही है । बोध होनेमें अभ्यासको हेतु माननेके कारण जल्दी बोध नहीं हो रहा है ।

यद्यपि भगवन्नामका जप, कीर्तन, प्रार्थना भी अभ्यासके अन्तर्गत आते हैं, तथापि ये अभ्याससे तेज हैं । कारण कि अभ्यासमें अपना सहारा रहता है, पर जप, प्रार्थना आदिमें भगवान्‌का सहारा रहता है । ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ यह पुकार अभ्याससे तेज है । अभ्यासमें अपने उद्योगसे काम होता है, पर पुकारमें भगवान्‌की कृपासे काम होता है । आप अभी अभ्यासके राज्यमें ही बैठे हुए हैं, आपके संस्कार अभ्यासके हैं, इसलिये आप नामजप, कीर्तन, प्रार्थनामें लग जाओ तो आपको बहुत लाभ होगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे