हम जिस मनुष्यको महात्मा मानते हैं, वह अपने
शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेसे ही महात्मा है, शरीरसे सम्बन्ध रहनेके
कारण नहीं । महात्मा कभी शरीरमें सीमित होता ही नहीं । अतः उनके अविनाशी सिद्धान्तों और वचनोंपर
ही श्रद्धा होनी चाहिये, नाशवान् शरीर या नामपर नहीं । नाशवान् शरीर और नाममें तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । अतः भगवान्के अविनाशी, दिव्य, अलौकिक विग्रहकी पूजा, ध्यान
आदिको छोड़कर नाशवान्, भौतिक शरीरोंकी पूजा, ध्यान आदि करनेसे न केवल अपना जीवन
निरर्थक होता है, प्रत्युत अपने साथ महान् धोखा भी होता है ।
आजकलके जमानेमें तो गुरुका पूजन, ध्यान आदि करनेमें विशेष
सावधान रहना चाहिये; क्योंकि इसमें धोखा होनेकी बहुत सम्भावना है । अपनी पूजा करानेवाले,
अपने नामका जप एवं शरीरका ध्यान करानेवाले, अपनी जूठन, चरणरज, चरणामृत देनेवालेसे
जहाँतक बने, दूर रहना चाहिये, बचना चाहिये । कारण कि इसमें ठगे जानेकी सम्भावना है,
जैसे‒कपटमुनिसे प्रतापभानु, साधुवेशधारी रावणसे सीताजी और कालनेमिसे हनुमान्जी
ठगे गये थे !
जो साधक हैं, पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले हैं,
उनको अपनी पूजा आदि नहीं करवानी चाहिये; क्योंकि इससे तपोबल क्षीण होता है और
पारमार्थिक उन्नतिमें बाधा लगती है । अतः साधकोंको इन बातोंसे बचना चाहिये, सावधान
रहना चाहिये ।
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