प्रश्न‒गुरुका
पूजन करना, ध्यान करना, उनकी जूठन लेना, चरणरज लेना, चरणामृत लेना कहाँतक उचित है
?
उत्तर‒ये सब भगवान्के प्रति ही करना चाहिये; जैसे‒भगवान्के ही विग्रहका पूजन करे;
भगवान्का ही ध्यान करे; भगवान्को ही भोग लगाया हुआ प्रसाद ग्रहण करे, जहाँ
भगवान्ने लीला की है, वहींकी रजका आदर करे; शालग्राम आदिका ही चरणामृत ले, भगवान्के
चरणोंसे निकली हुई गंगाजीका ही आदर करे । तात्पर्य है कि
सबसे महान् एवं पवित्र भगवान् ही हैं । उनके समान कोई है नहीं, हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं । अतः उनके
शरण होकर उनका ही पूजन, ध्यान आदि करना चाहिये ।
भगवान्का शरीर तो चिन्मय और अविनाशी होता है,
पर महात्माका शरीर पाँचभौतिक होनेके कारण जड़ और विनाशी होता है । भगवान् सर्वव्यापी
हैं; अतः वे चित्रमें भी हैं । परन्तु महात्माकी सर्वव्यापकता (शरीरसे अलग) भगवान्की सर्वव्यापकताके
अन्तर्गत होती है । एक भगवान्के अन्तर्गत सम्पूर्ण महात्मा हैं; अतः भगवान्की पूजा करनेसे सम्पूर्ण महात्माओंकी पूजा हो जाती है ।
अगर महात्माओंके हाड़-मांसमय
शरीरोंकी तथा उनके चित्रोंकी पूजा होने लगे तो इससे भगवान्की पूजामें बाधा लगेगी,
जो महात्माओंके सिद्धान्तसे विरुद्ध है । कारण कि महात्मा संसारमें लोगोंको
भगवान्की ओर लगानेके लिये आते हैं, अपनी ओर लगानेके लिये नहीं । जो लोगोंको अपनी ओर (अपनी पूजा,
ध्यान आदिमें) लगाता है, वह तो पाखण्डी होता है ।
वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो शरीर मल-मूत्र पैदा करनेकी
एक मशीन ही है । इसको बढ़िया-से-बढ़िया भोजन खिला दो तो वह मल बनकर निकलेगा और
बढ़िया-से-बढ़िया शर्बत पीला दो तो वह मूत्र बनकर निकलेगा ! जबतक प्राण हैं, तबतक तो
यह मल-मूत्र पैदा करनेकी मशीन है और प्राण
निकल जानेके बाद यह मुर्दा है । वास्तवमें तो यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा
है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्त्व (चेतन जीवात्मा) है, उसका चित्र
लिया ही नहीं जा सकता । चित्र
उस शरीरका लिया जाता है, जो प्रतिक्षण बदल रहा है, नष्ट हो रहा है । अतः शरीर भी
चित्र लेनेके बाद वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेनेके समय था । इसलिये चित्रकी पूजा
असत् (नाशवान्)-की ही पूजा हुई । शरीरके चित्रमें प्राण नहीं रहते, इसलिये
शरीरका चित्र मुर्देका भी मुर्दा हुआ !
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