किसी ग्रन्थमें लिखी हुई बातपर
विचार करना हो तो पहले उस ग्रन्थको देखें । जिस प्रसंगमें वह बात आयी हो, उसे पढ़ें
और समझें । एक बार मेरा कालेजमें जानेका काम पड़ा तो अपने स्वभाववश
मैंने कहा कि बोलो, क्या सुनाऊँ ? तब एक पढ़ी-लिखी महिलाने आकर कहा कि गोस्वामीजीने
नारी-जातिकी बड़ी निन्दा की है और कहा है‒
ढोल गँवार सूद्र पसु
नारि ।
सकल
ताड़ना के अधिकारी ॥
मैंने पूछा कि यह चौपाई कहाँ लिखी है ? तो
उसने कहा कि रामायणमें लिखी है । फिर पूछा कि रामायणमें किस जगह लिखी है ? तो कहा
क अयोध्याकाण्डमें लिखी है ! किस प्रसंगमें लिखी है ? तो कहा कि जहाँ स्त्रियाँका
वर्णन है, उसमें लिखी है ! तब मैंने कहा कि देखो, तुम पढ़ी-लिखी हो, ग्रेजुएट हो;
पढ़े-लिखे व्यक्तिको चाहिये कि वह कुछ बोले तो ढंगसे बोले । कोई व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा रखना चाहे तो उसे सोच-विचारकर
बोलना चाहिये‒
बैठ सभा विच मूँडे बाहर, वचन काढ़ि जे
सोच-बिचार ।
आपकी कोई शंका हो तो पहले उस मूल ग्रंथको
देखें कि यह चौपाई कहाँ आती है ? गोस्वामीजीने किसके द्वारा कहलवायी है ? कौन
बोलता है ? कम-से-कम इतना विचार कर लें, फिर पीछे शंका करें । बिना विचार किये
सीधे गोस्वामीजीपर कलंक लगाना कि उन्होंने नारी-जातिपर आक्षेप किया है, यह बड़ी
भारी भूल है‒‘निज अग्यान राम पर धरहीं’ (मानस ७/७३/९) ।
यदि पुरुष-जाति स्त्री-जातिपर
आक्षेप करती है अथवा स्त्री-जाति पुरुष-जातिपर आक्षेप करती है तो वे दोनों ही
बेईमान हैं । अपनी जातिको बढ़िया बताना और दूसरी जातिको खराब बताना मनुष्यता नहीं
है । गोस्वामीजी सीताजीके चरणोंकी वन्दना करते हैं‒
जनकसुता जग
जननि जानकी ।
अतिसय प्रिय
करुनानिधान की ॥
ताके जुग पद
कमल मनावऊँ ।
जासु कृपाँ निरमल
मति पावउँ ॥
(मानस बालकाण्ड १८/७-८)
वे स्त्री-जातिकी निन्दा कैसे कर सकते हैं
? भला आदमी दूसरेकी निन्दा नहीं कर सकता, प्रत्युत अपनी
निन्दा कर सकता है कि भाई ! हम तो ऐसे हैं !
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