।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद पूर्णिमा, वि.सं. २०७६ शनिवार
        पूर्णिमा, महालयारम्भ, प्रतिपदा-श्राद्ध
गुरु-विषयक प्रश्नोत्तर



प्रश्न‒गुरुकी पहचान क्या है ?

उत्तर‒गुरुकी पहचान शिष्य नहीं कर सकता । जो बड़ा होता है, वही छोटेकी पहचान कर सकता है । छोटा बड़ेकी पहचान क्या करे ! फिर भी जिसके संगसे अपनेमें दैवी-सम्पत्ति आये, आस्तिकभाव बढे, साधन बढे, अपने आचरण सुधरें, वह हमारे लिये गुरु है ।

प्रश्न‒गुरु शरीरका नहीं, तत्त्वका नाम है‒इसका क्या तात्पर्य है ?

उत्तर‒गुरुके द्वारा जब शिष्यको प्रकाश मिलता है, ज्ञान मिलता है, तभी वह ‘गुरु’ कहलाता है । अब उसको गुरु मानना, उसका आदर करना तो शिष्यका काम है, पर वास्तवमें गुरु तत्त्वज्ञान ही हुआ; क्योंकि शिष्यको तत्वज्ञान होनेसे ही उसकी ‘गुरु’ संज्ञा सिद्ध होती है । इसलिये भागवतमें कहा गया है  कि गुरुमें मनुष्यबुद्धि और मनुष्यमें गुरुबुद्धि करना अपराध है । सन्त कहते हैं‒

जो तू चेला देह  को,  देह  खेह  की  खान ।
जो तू चेला सबद को, सबद ब्रह्मकर मान ॥

अर्थात् शब्दसे ही ज्ञान होता है और गुरु शब्दके द्वारा ही तत्त्वज्ञान कराता है । अतः गुरु परमात्मतत्त्व ही हुआ ।

प्रश्न‒गुरुके बिना गति नहीं होती, ज्ञान नहीं होता‒यह बात कहाँतक ठीक है ?

उत्तर‒यह बात एकदम ठीक है, सच्‍ची है; परन्तु केवल गुरु बनानेसे अथवा गुरु बननेसे कल्याण, मुक्ति हो जाय‒यह बात ठीक जँचती नहीं । यदि गुरुके भीतर यह भाव रहता है कि ‘मेरे बहुत-से शिष्य बन जायँ, मैं एक बड़ा आदमी बन जाऊँ’ आदि और शिष्यका भी यह भाव रहता है कि ‘एक चद्दर, एक नारियल और एक रुपया देनेसे मेरा गुरु बन जायगा, गुरु मेरे सब पाप हर लेगा’ आदि, तो ऐसे गुरु-शिष्यके सम्बन्धमात्रसे कल्याण नहीं होता । कारण कि जैसे माता-पिता, भाई-भौजाई, स्त्री-पुत्रका सम्बन्ध है, ऐसे ही गुरुका एक और सम्बन्ध हो गया !

जिनके दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिन्तनसे हमारे दुर्गुण-दुराचार दूर होते हैं, हमें शान्ति मिलती है, हमारेमें दैवी-सम्पत्ति बिना बुलाये आती है और जिनके वचनोंसे हमारे भीतरकी शंकाएँ दूर हो जाती हैं, शंकाओंका समाधान हो जाता है, भीतरसे परमात्माकी तरफ गति हो जाती है, पारमार्थिक बातें प्रिय लगने लगती हैं, पारमार्थिक मार्ग ठीक-ठीक दीखने लगता है, ऐसे गुरुसे हमारा कल्याण होता है । यदि ऐसा गुरु (सन्त) न मिले तो जिनके संगसे हम साधनमें लगे रहें, हमारी पारमार्थिक रुचि बनी रहे, ऐसे साधकोंसे सम्बन्ध जोड़ना चाहिये । परन्तु उनसे हमारा सम्बन्ध केवल पारमार्थिक होना चाहिये, व्यक्तिगत नहीं । फिर भगवान्‌ ऐसी परिस्थिति, घटना भेजेंगे कि हमें वह सम्बन्ध छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा और हमें अच्छे सन्त मिल जायँगे ! वे सन्त चाहे साधुवेशमें हों, चाहे गृहस्थवेशमें हों, उनका संग करनेसे हमें विशेष लाभ होगा । तात्पर्य है कि भगवान्‌ प्रधानाध्यापककी तरह हैं, वे समयपर स्वतः कक्षा बदल देते हैं । अतः हमें भगवान्‌पर विश्वास करके रुचिपूर्वक साधनमें लग जाना चाहिये ।


‒ ‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे