वास्तवमें समता ही तत्व है । गीतामें कहा है—‘इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।’ (गीता
१४/२५) अर्थात् जिनका
मन समतामें स्थित है, उन्होंने इस जीवित अवथामें ही सम्पूर्ण संसारको जीत लिया है
। तात्पर्य है कि जिनके हृदयमें समता है है,
उनके हृदयमें वस्तुओंके बनने-बिगड़नेपर,
आने-जानेपर कोई विषमता नहीं होती,
पक्षपात नहीं होता,
राग-द्वेष नहीं होते,
हर्ष-शोक नहीं होते । वस्तुओं और व्यक्तियोंके
आने-जानेसे हमारेपर किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़े, तब
तो हम संसारपर विजयी हो गये; परन्तु उनके आने-जानेका असर पडता है तो हम संसारसे
पराजित हो गये, हार गये । संसार विजयी हो गया हमपर । हार किसीको भी अच्छी नहीं लगती,
जीत सबको अच्छी लगती है । जिनका मन समतामें स्थित है,
वे आज और अभी जीत सकते हैं,
विजयी हो सकते है । गीता कहती है—‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥’ (५/११) अर्थात् जिन महापुरुषोंका अन्तःकरण निर्दोष और सम हो गया,
वे परमात्मामें ही स्थित हैं; क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है । कितनी विलक्षण बात है !
परमात्मतत्वको प्राप्त
करना मनुष्यका खास ध्येय है । प्रत्येक भाई और बहन सब अवस्थाओंमें उस तत्वको प्राप्त कर
सकते हैं; क्योंकि उस तत्वकी प्राप्तिके लिये ही यह
मनुष्यशरीर मिला है । परन्तु
हम नाशवान् चीजोंको अपनी मानकर फँस जाते हैं । ये चीजें पहले भी अपनी
नहीं थी और पीछे भी अपनी नहीं रहेंगी—यह पक्की बात है
। बीचमें उनको अपनी मानकर हम फँस जाते हैं । अगर हम उन चीजोंको
अपनी न मानकर अच्छे-से-अच्छे, उत्तम-से-उत्तम व्यवहारमें लायें तो हम बंधनमें नहीं पड़ेंगे
। उन वस्तुओंमें हमारा अपनापन जितना-जितना छूटता चला जायगा,
उतनी-उतनी हमारी मुक्ति होती चली जायगी । प्रभुके साथ हमारा अपनापन सदासे है और सदा रहेगा । केवल हम ही भगवान्से
विमुख हुए हैं, भगवान् हमसे विमुख नहीं हुए । हम भगवान्के हैं
और भगवान् हमारे हैं—
अस अभिमान जाइ जनि भोरे ।
मैं सेवक रघुपति पति मोरे
॥
(मानस, अरण्य.
११/२१)
मीराबाई इतनी ऊँची हुई,
इसका कारण उसका यह भाव
था कि ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई ।’ केवल एक भगवान् ही मेरे हैं, दूसरा
मेरा कोई नहीं है ।
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