सज्जनो ! हम भगवान्के हो जाते हैं तो भगवान्की सृष्टिके साथ
उत्तम-से-उत्तम बर्ताव करना हमारे लिये आवश्यक हो जाता है । यह सब सृष्टि प्रभुकी है,
ये सभी हमारे मालिकके हैं—ऐसा भाव रखोगे तो उनके साथ हमारा बर्ताव बड़ा अच्छा होगा ।
त्यागका, उनके हितका, सेवाका बर्ताव होगा । इससे व्यवहार तो शुद्ध होगा ही,
हमारा परमार्थ भी सिद्ध हो जायगा,
हम संसारसे मुक्त हो जायँगे । अतः
हम भगवान्के होकर भगवान्का काम करें । ये सब प्राणी भगवान्के हैं, इन
सबकी सेवा करें । अपना यह भाव
बना लें—
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्
॥
सब-के-सब सुखी हो जायँ, सब-के-सब
निरोग हो जायँ, सबके जीवनमें मंगल-ही-मंगल हो, कभी
किसीको दुःख न हो—ऐसा भाव हमारेमें हो जायगा तो दुनियामात्र सुखी होगी
कि नहीं, इसका पता नहीं; परन्तु
हम सुखी हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं ।
आप थोड़ी कृपा करें, इस बातको ध्यानपूर्वक समझें । भक्तिमार्गमें
तो केवल भाव बदलना है कि मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे है; संसार
मेरा नहीं है और मैं संसारका नहीं हूँ । गीतामें आया है—‘अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्’ (९/२२), ‘अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः’ (८/१४) । अनन्य होकर भगवान्का चिन्तन करनेका तात्पर्य यह है कि मैं
केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् मेरे हैं । ऐसा करनेवालेके लिये भगवान् कहते हैं—‘तस्याहं सुलभः’ अर्थात् जो अनन्यचेता होकर मेरा स्मरण करता है,
उसको मैं सुलभतासे मिल जाता हूँ ।
सज्जनो ! जो व्यापार करना चाहता,
उसको यदि कोई बढ़िया बता दे तो वह उसे छोड़ेगा नहीं;
क्योंकि उसमें लाभ बहुत होता है । ऐसे ही जो अपनी आध्यात्मिक उन्नति चाहता है, उसके
लिये बड़ी श्रेष्ठ और सीधी-सादी बात यह है कि वह मैं भगवान्का हूँ, भगवान्
मेरे हैं, यह मान ले । यह मान्यता अगर दृढ़ हो जाय तो आज ही पूर्ण हो सकती है । अगर
इस मान्यताको मिटाओगे नहीं तो समय पाकर स्वतः ही पूर्णता हो जायगी । अतः इतनी कृपा करें, महेरबानी
करें कि ‘मैं
भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं’—यह
बात पक्की मान लें । सच्ची बात है,
आपको धोखा नहीं देता हूँ । पहले आप भगवान्के थे,
अन्तमें भगवान्के ही रहेंगे और अब भी भगवान्के ही हैं । आप
मानें या न मानें, पर आप भगवान्के ही हैं इसमें संदेह नहीं ।
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