जैसे एक गृहस्थ व्यक्तिका अपने पूरे परिवारके साथ सम्बन्ध रहता है, वैसे
परमात्माका भी पूरे संसारके साथ सम्बन्ध है । संसारमें
भले या बुरे, श्रेष्ठ या निकृष्ट कैसे ही प्राणी क्यों न हों, परमात्माका सम्बन्ध
सबके साथ समान है । भगवान्ने कहा है‒ ‘समोऽहं
सर्वभूतेषु’ (गीता ९/२९) । प्राणियोंके साथ ही नहीं, परिस्थितियाँ, अवस्थाओं,
घटनाओं आदिके साथ भी एक समान सम्बन्ध है । अब आप ध्यान दें कि किसी व्यक्तिमें यदि
विशेष योग्यता है, तो क्या उसके साथ परमात्माका विशेष सम्बन्ध है ? नहीं । उसमें
जो विशेषता प्रतीत होती है, वह सांसारिक दृष्टिसे ही है । परमात्माका तो सबके साथ
सम्बन्ध है; उस सम्बन्धमें कभी कमी या अधिकता नहीं होती । अतः किसी गुण, योग्यता
या विशेषतासे हम परमात्माको प्राप्त कर लेंगे‒यह बात संसारकी विशेषता या महत्ताको
लेकर की जाती है । यदि संसारसे विमुख होकर देखें, तो सब-के-सब परमात्माको प्राप्त करनेके
अधिकारी हैं । सांसारिक दृष्टिसे जितनी योग्यता, विलक्षणता, विशेषता
है, वह पूरी-की-पूरी मिलकर भी परमात्माको खरीद ले‒यह बात नहीं है । भगवान्ने कहा
है‒
नाहं वेदैर्न न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
(गीता ११/५३)
‘मैं न तो वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न
यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ ।’
बड़ा भारी उग्र तप किया जाय, उससे भी भगवान् पकड़में नहीं आते ‘न तपोभिरुग्रैः’ (गीता ११/४८) । तो भगवान् पकड़में कैसे
आते हैं ? त्यागसे‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२/१२)
। त्याग करना हो, तो बहुत धन हो तो भी त्याग करना है, कम धन हो तब भी त्याग करना
है, ज्यादा योग्यता हो तब भी त्याग करना है, कम योग्यता हो तब भी त्याग करना है ।
सच्ची बात तो बड़ी विलक्षण है । वह यह है कि जैसे पापोंका त्याग करना है, वैसे ही
पुण्योंका भी त्याग करना है । बात थोड़ी अटपटी दीखती है, पर गुणोंका, योग्यताका,
पुण्यका अभिमान तो त्यागना ही पड़ेगा । अभिमानका त्याग ही तो त्याग है, वस्तुका क्या त्याग ? वस्तु
तो आपसे अलग है ही । संसारकी जितनी योग्यता, परिस्थिति, गुण आदि है, उन
सबके त्यागसे तत्त्वकी प्राप्ति होती है । तत्त्वप्राप्तिमें देरी इसलिये लग रही
है कि आपने योग्यता, परिस्थिति, गुण, व्यक्तित्व, सामग्री आदिको पकड़ रखा है । यहाँतक
कि त्यागको भी पकड़ रखा है कि ‘मैं बड़ा त्यागी हूँ’‒इस
त्यागीपनेका भी त्याग करना होगा, अन्यथा परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी । ऐसे ही
‘मैं बड़ा वैरागी हूँ’ इस विरक्तिका भी त्याग करना पड़ेगा, अन्यथा बन्धन बना रहेगा ।
परमात्माका जैसे विरक्तिके साथ सम्बन्ध है, वैसे आसक्तिके साथ भी सम्बन्ध है । तो
जैसे आसक्तिसे साथ सम्बन्ध नहीं रखना है, वैसे विरक्तिके साथ भी सम्बन्ध नहीं रखना
है । सम्पूर्ण वस्तुओं, अवस्थाओं, घटनाओं, क्रियाओं आदिसे परमात्माका सम्बन्ध एक समान
है, तो इन सभीसे विमुख होना पड़ेगा । इन सबसे विमुख होनेपर तत्त्वकी प्राप्ति होगी
।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
(मानस ५/४४/१)
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