सत्य-तत्त्व सबको स्वतः प्राप्त है, परन्तु उधर
अपनी दृष्टि नहीं है, इसलिये वह अप्राप्त दीख रहा है । जैसे, आप कुछ भी काम करें या न करें, पर क्या आप अपना अभाव
देखते हैं ? मैं नहीं हूँ‒ऐसे अपनी सत्ताके अभावका अनुभव
किसीको भी नहीं होता, न हो सकता है । इससे सिद्ध हुआ कि अपना भाव अर्थात् होनापन
निरन्तर रहता है । क्रियाओंमें अन्तर पड़ सकता है, पर अपने होनेपनमें अन्तर
नहीं पड़ता । पर मनुष्यकी
दृष्टि क्रियाओंकी तरफ रहती है, अपने होनेपनकी तरफ नहीं । वह छोटा-बड़ा,
बढ़िया-घटिया, विहित-निषिद्ध आदि कर्म करता रहता है और अपनेको उन कर्मोंका कर्ता
मानता रहता है । पर उसकी दृष्टि उस तत्त्वकी तरफ नहीं जाती, जहाँ पर कर्ता टिका
हुआ है, जो कर्ताका प्रकाशक, आश्रय और अधिष्ठान है । उस
ज्ञान तथा प्रकाशरूप निर्विकल्प तत्त्वका कभी अभाव नहीं होता । तो अपना भाव
(होनापन) निरन्तर रहता है । यही अपना स्वरूप है, इसका ज्ञान ही स्वरूपका ज्ञान है
। इसकी तरफ दृष्टि होना ही स्वरूप-बोध है ।
पहले अन्तःकरण शुद्ध होगा, फिर उसका अनुभव होगा‒यह
प्रक्रिया शास्त्रोंकी है और बहुत ठीक है । परन्तु अन्तःकरण शुद्ध हुए बिना हम तत्त्वप्राप्तिके
अधिकारी नहीं हैं‒ऐसा मैं नहीं मानता । मनुष्यमात्र केवल तत्त्वप्राप्तिके
लिये ही हैं‒‘कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु
हेतु सनेही ॥’ (मानस ७/४४/३) तो मनुष्य-शरीरके साथ-साथ मुक्तिका पूरा
अधिकार भी भगवान् देते हैं । मनुष्य-शरीर परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है । जो
परमात्माको प्राप्त न कर सके, उसे मनुष्य बना दें‒ऐसी भगवान्में पोल नहीं है । एक
सरकारी आदमी भी किसी पदपर उसी व्यक्तिकी नियुक्ति करता है, जो उस पदको पानेका
अधिकारी हो, जो उसके योग्य हो । हेड मास्टरके पदपर किसी भेड़ चरानेवालेको लाकर नहीं
बैठाया जाता । तो भगवान्से इतनी भूल हो जाय कि जो मनुष्यके योग्य काम न कर सके, उसे मनुष्य बना दिया‒ऐसा हो ही नहीं सकता
। जब मनुष्य-शरीर मिल गया, तब तत्त्वप्राप्तिका
पूरा अधिकार भी मिल गया । अब मनुष्य अपने-आप अपनी हार मान ले तो यह उसकी गलती है ।
कहते हैं कि अशुद्ध अन्तःकरणवाला मनुष्य तत्त्वको कैसे जानेगा ? मैं कहता हूँ कि
अशुद्ध अन्तःकरणवाला मनुष्य अन्तःकरणके द्वारा तत्त्वको नहीं जान सकता, पर तत्त्व
तो अन्तःकरणसे अतीत है । क्या स्वयं (अपना होनापन) अन्तःकरणके आश्रित हैं ? नहीं ।
अन्तःकरण तो करण है, और स्वयं कर्ता है । करण कर्ताके
अधीन होता है । कर्ता कभी करणके अधीन नहीं होता । जिससे हम काम लेते हैं,
उन काम करनेके औजारोंका नाम है‒करण । काम करनेवालेका नाम है‒कर्ता । करणसे की
जानेवाली क्रियाओंको करनेमें तो कर्ता करणके बिना असफल हो जाता है । परन्तु करणसे
अतीत तत्त्व अर्थात् अपने-आप- (स्वयं-)में स्थित होनेमें कर्ता असफल कैसे हो जायगा
? जो अन्तःकरणके द्वारा स्वयंको जानना चाहता है, वह अन्तःकरणके शुद्ध होनेपर ही जानेगा,
पर हम अन्तःकरणका सम्बन्ध-विच्छेद ही कर दें तो उसे
क्यों नहीं जान सकते, क्योंकि कर्ता (स्वयं) करण (अन्तःकरण) के अधीन नहीं है ।
करण अलग-अलग होते हैं और उनसे होनेवाली क्रियाएँ भी अलग-अलग होती हैं, पर कर्ता एक
होता है ।
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