हम करेंगे, तब काम होगा‒ऐसा एक क्रियाका विषय होता है ।
खेती करेंगे, तब होगा; व्यापर करेंगे, तब होगा; नौकरी करेंगे तब होगी‒इस प्रकार एक धारणा रहती है कि हरेक काम करनेसे ही होगा । इसी तरह
भगवत्प्राप्ति भी करनेसे होगी और भगवत्प्राप्तिके लिये जितना समय, बल,
बुद्धि लगायेंगे, जितना अभ्यास करेंगे, उतना ही हम भगवान्के नजदीक पहुँचेंगे तथा
ऐसा करते-करते उसे प्राप्त कर लेंगे‒ऐसी धारणा रहती है । तो इसमें एक मार्मिक बात जाननेकी आवश्यकता है । वह यह कि परमात्मा
पहलेसे मौजूद हैं । हम भी उस परमात्माके नजदीक हैं । परमात्मा दूर हैं, अतः धीरे
अथवा तेजीसे चलकर वहाँ पहुँचेंगे, परिश्रम भी होगा, रास्ता भी कटेगा, समय भी लगेगा
ही‒ऐसी बात नहीं है । जहाँ हम परमात्माको
प्राप्त करना चाहते हैं और जहाँ हम अपनी स्थितिको मानते हैं‒वहीं परमात्मा
पूरे-के-पूरे विराजमान हैं ।
परमात्माको पानेका अधिकार दूसरोंका है वे किसी औरके
कब्जेमें हैं, उन्हें छुड़ायेंगे तब काम बनेगा । उनकी गरज करेंगे तो वे कुछ निहाल
करेंगे और उनकी प्राप्ति होगी‒ऐसी बात बिलकुल नहीं है । परमात्मा किसीके अधिकारमें
नहीं हैं, उनपर किसीका कब्ज़ा नहीं है, वे किसी स्थानपर बन्द नहीं हैं, वे किसी ज्ञान
आदिसे बन्धे हुए नहीं हैं । वे बिलकुल खुले हैं । उनपर हमारा पूरा हक लगता है;
क्योंकि हम उन्हींके अंश हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता
१५/७), ‘ईस्वर अंस जीव अबिनाशी’ (मानस ७/११७/१)
। जैसे बालक होता है, तो उसे अपनी माँकी गोदमें जानेके
लिये क्या नया काम करना पड़ता है ? क्या अभ्यास करना पड़ता है ? क्या उसे शुद्ध होना
पड़ता है ? क्या उसे विद्वान, बलवान् या धनवान् बनना पड़ता है ? वह तो माँ है,
जैसा-का-तैसा ही माँके पास जा सकता है ? भगवान् तो माँसे भी विशेष अपने और समीप
हैं । कारण कि माँ तो एक जन्मकी होती है और भगवान् तो सदासे ही हमारे माता, पिता,
भाई, बन्धु, सम्बन्धी, कुटुम्बी हैं । हमसे
नजदीक-से-नजदीक वस्तु भगवान् ही हैं । भगवान् तो सदासे ही हमारे माता, पिता,
भाई, बन्धु, सम्बन्धी, कुटुम्बी हैं । हमसे नजदीक-से-नजदीक वस्तु भगवान् ही हैं ।
वे शरीरसे भी अधिक नजदीक हैं, क्योंकि
शरीर तो परिवर्तनशील होनेसे हमसे अलग है । शरीरकी संसारके साथ एकता है और हमारी
भगवान्के साथ एकता है । इसलिये उन्हें पानेके लिये समय,
बुद्धि लगानी पड़े‒ऐसी बात नहीं है । केवल उधर हमारी दृष्टि नहीं है । हमारी दृष्टि
नाशवान् पदार्थोंकी तरफ है । नाशवान् पदार्थोंमें भी परमात्मा ज्यों-के-त्यों
परिपूर्ण हैं, परन्तु उधर दृष्टि न रहनेसे वे नहीं दीखते, नाशवान् पदार्थ दीखते
हैं । जैसे हम गाड़ीमें जा रहे हैं । किसी स्टेशनपर गाड़ी ठहरी । अधिक देर
ठहरी, कारण कि सामने दूसरी गाड़ी आयी और
दूसरी लाइनमें खड़ी हो गयी । हम उस गाड़ीके तरफ देखते हैं । वह गाड़ी चल पड़ती है तो
मालूम होता है कि हमारी गाड़ी चल पड़ी, जबकि हमारी गाड़ी ज्यों-की-त्यों खड़ी है ।
इसका पता तब लगेगा, जब हम स्टेशनकी तरफ देखेंगे । इसी प्रकार चलनेवाले संसारको न
देखकर स्थिर रहनेवाले परमात्मतत्त्वको देखें । तो वह परमात्मा न कहींसे आया और न
कहीं गया, वह ज्यों-का-त्यों है । चलनेवाला तो संसार है ।
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