चिन्ता आती है तो इसमें एक सूक्ष्म बात रहती है जैसे चिन्ता हुई कि धन नहीं है
। तो इसका अर्थ होता है कि मैं धन कमा सकता हूँ, ले सकता हूँ और जब मैं धन कमा
सकता हूँ तो यह अपने बलका भरोसा और अहंकार ही हुआ ।
शरणागतके धनके अभावका अनुभव तो हो जायगा,
परन्तु चिन्ता नहीं होगी । ऐसे ही कोई रोग हो जाय तो क्या करूँ रोग
दूर नहीं होता‒ऐसी चिन्ता नहीं होगी । रोग होता है, वह अच्छा तो नहीं लगता, परन्तु
रोग दूर नहीं होता, ऐसी चिन्ता नहीं होगी । चिन्ता तभी होती है, जब रोग दूर
करनेमें अपनेपर विश्वास होता है, अपना कोई भरोसा होता है । अपनेपर भरोसा बिलकुल मत रखो । अपने बलका, विद्याका, बुद्धिका,
योग्यताका, अधिकारका बल बिलकुल नहीं रखना है ।
सुने री मैंने निर्बल के बल राम ।
सर्वथा केवल भगवान्का ही बल है, हमारा बल कुछ
नहीं है । बल रहनेसे चिन्ता होती है । यह बारीक बात है, भाई लोग ध्यान दें । जब कभी चिन्ता होती है तो इसका अर्थ यह होता है कि मैंने
यह नहीं किया, वह नहीं किया, यह कर लूँगा । ऐसा कर लूँगा । उसे मैं कर लूँगा, तब
चिन्ता होती है । शरण तो हो गया, पर भगवान्के दर्शन ही
नहीं हुए । भगवान्के चरणोंमें प्रेम ही नहीं हुआ । मेरी तो ऐसी अनन्य गाढ़ प्रीति भी नहीं हुई । इन बातोंके न होनेका
अभाव तो खटकता है, पर चिन्ता नहीं होनी चाहिये; क्योंकि यह मेरे हाथकी बात नहीं ।
मैं तो भगवान्को ही पुकारूँ । भगवान्का ही हूँ । अब उनकी मर्जी होगी तो प्रेम
करेंगे, मर्जी होगी तब दर्शन देंगे, मर्जी होगी तब अनन्य भक्त बनायेंगे । अब वे
मर्जी आवे जैसा बनायें । अपने-आपको तो दे दिया । जैसे कुम्हार मिट्टीको
गीली करके रौंदता है । अब वह रौंदता है तो मर्जी है, कुछ बनता है तो मर्जी है,
पहिले सिरपर उठाकर लाया तो मर्जी है, चक्केपर चढ़ाकर घुमाता है तो उसकी मर्जी है ।
मिट्टी नहीं कहती कि क्या बनाते हो ? घड़ा बनाओ, सकोरा बनाओ, मटकी बनाओ, चाहे सो
बनाओ । मिट्टी अपनी कोई मर्जी नहीं रखती । इसी तरह हमें
प्रेमकी कमी मालूम पड़ती है । पर यह भी मालूम न होने देना अच्छी बात है कि मेरेको
क्या मतलब प्रेमसे, दर्शनसे, भक्तिसे । मैं तो भगवान्का हूँ‒ऐसे निश्चिन्त हो
जायँ । कमी मालूम देना दोष
नहीं है, पर कमीकी चिन्ता करना दोष है । अपना बल कुछ नहीं है । अपने तो
उसके चरणोंमें आ गये । अब उसके हैं । अब वह चाहे जन्म-मरण दे । जैसी मर्जी हो,
वैसे करे । सब तरहके संकल्प-विकल्प छोड़कर केवल मेरी (भगवान्की) शरण हो जाय । तू
चिन्ता कुछ भी मत कर ।
भक्तके जितनी निश्चिन्तता अधिक होती है, उतना ही प्रभाव भगवान्की
कृपाका विशेष पड़ता है और जितनी वह खुद चिन्ता कर लेता है, उतना वह प्रभावमें बाधा
दे देता है । तात्पर्य, भगवान्के शरण होनेपर भगवान्की तरफसे जो कृपा
आती है, उस अटूट, अखण्ड, विलक्षण, विचित्र कृपामें बाधा लग जाती है । भगवान्
देखते हैं कि वह तो खुद चिन्तित है तो खुद ठीक कर लेगा, तो कृपा अटक जाती है । जितना निश्चिन्त हो सके, निर्भय हो सके, निःशंक हो सके,
संकल्प-विकल्पसे रहित हो सके उतनी ही श्रेष्ठ शरणागति है । इसलिये कह दो कि अपनेपर कोई भार
ही नहीं है । अपनेपर कोई बोझा ही नहीं है, अपनेपर कोई जिम्मेवारी ही नहीं है । अब
तो सर्वथा हम भगवान्के हो गये ।
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