भगवान्से कुछ भी चाहता है कि मेरे ऐसा हो जाय
तो वह भगवान्से अलग रहता है । जैसे एक अरबपतिका लड़का पितासे कहे कि मेरेको दस हजार रुपये मिल जायँ । इसका
अर्थ होता है कि वह पितासे अलग होना चाहता है । वास्तवमें करोड़ों, अरबों मेरे ही
तो हैं । मेरेको कुछ नहीं लेना है । लेनेकी इच्छा होती
है तो वह भगवान्से अलग कर देती है, भगवान्की आती हुई कृपामें आड़ लगा देती है ।
जैसे बिल्लीका बच्चा होता है, उसे अपना
खयाल ही नहीं रहता कि कहाँ जाना है, क्या करना है । वह तो अपनी माँपर निर्भर रहता
है । बिल्ली उसे पकड़ लेती है तो बच्चा अपने पंजे सिकोड़ लेता है । कुछ भी बल नहीं
करता । अब जहाँ मर्जी हो वहाँ रख दे, चाहे जहाँ ले जाय, उस बिल्लीकी मर्जी । ऐसे ही भगवान्का भक्त उनकी तरफ देखता है । उनके विधानमें
प्रसन्न रहता है । उसे सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, संयोग-वियोग, आदर-निरादर,
प्रशंसा-निन्दासे कोई सरोकार ही नहीं । अपनी तरफसे कोई चिन्ता नहीं, विचार आ जाय
तो भगवान्को पुकारे, ‘हे नाथ ! मैं क्या करूँ ?’ इस तरह चिन्ता छोड़कर उनके शरण हो
जाय ।
प्रश्न‒शरणागतका
जीवन कैसा होता है ?
उत्तर‒गीताके अनुसार कर्त्तव्य-कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये,
अपितु सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् कर्मोंको भगवान्के अर्पण करना ही सर्वश्रेष्ठ
धर्म है । जब सम्पूर्ण
कर्म भगवान्के समर्पण करके भगवान्के शरण होना है तो फिर अपने लिये धर्मके
निर्णयकी जरूरत ही नहीं रही ।
मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं‒इस
अपनेपनके समान योग्यता, पात्रता, अधिकार आदि कोई भी नहीं है, यह सम्पूर्ण साधनोंका
सार है । इसलिये शरणागतको अपनी वृत्तियों आदिकी तरफ न देखकर भगवान्के अपनेपनकी
तरफ ही देखते रहना चाहिये ।
भगवान् कहते हैं‒मेरे शरण होकर तू चिन्ता करता है, यह मेरे प्रति अपराध है,
शरणागतिमें कलंक है और इसमें तेरा अभिमान है । मेरे शरण होकर मेरा विश्वास
और भरोसा न रखना‒यही मेरे प्रति अपराध है और अपने दोषोंकी चिन्ता करना तथा
मिटानेमें अपना बल मानना‒यह तेरा अभिमान है । इनको तू छोड़ दे । तेरे आचरण,
वृत्तियों, भाव शुद्ध नहीं हुए हैं, दुर्भाव पैदा हो जाते हैं और समयपर दुष्कर्म
भी हो जाते हैं तो भी तू इनकी चिन्ता मत कर । इन दोषोंकी चिन्ता मैं करूँगा ।
भगवान् जो विधान करते
हैं, वह संसारके सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करते हैं । बस, शरणागतकी इस तरफ दृष्टि हो जाय तो फिर उसके लिये कुछ करना बाकी
नहीं रहता ।
जो मनुष्य सच्चे हृदयसे प्रभुकी शरणागतिको
स्वीकार कर लेता है तो उसका यह शरण-भाव स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है ।
भगवान् भक्तके अपनेपनको ही देखते हैं, उसके
गुण-अवगुणोंको नहीं देखते अर्थात् भगवान्को भक्तके दोष दीखते ही नहीं ।
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