।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक शुक्ल षष्ठी, वि.सं. २०७६ शनिवार
                    स्कन्द षष्ठी, छठपूजा
                 शरणागति



भगवान्‌से कुछ भी चाहता है कि मेरे ऐसा हो जाय तो वह भगवान्‌से अलग रहता है । जैसे एक अरबपतिका लड़का पितासे कहे कि मेरेको दस हजार रुपये मिल जायँ । इसका अर्थ होता है कि वह पितासे अलग होना चाहता है । वास्तवमें करोड़ों, अरबों मेरे ही तो हैं । मेरेको कुछ नहीं लेना है । लेनेकी इच्छा होती है तो वह भगवान्‌से अलग कर देती है, भगवान्‌की आती हुई कृपामें आड़ लगा देती है ।  जैसे बिल्लीका बच्चा होता है, उसे अपना खयाल ही नहीं रहता कि कहाँ जाना है, क्या करना है । वह तो अपनी माँपर निर्भर रहता है । बिल्ली उसे पकड़ लेती है तो बच्चा अपने पंजे सिकोड़ लेता है । कुछ भी बल नहीं करता । अब जहाँ मर्जी हो वहाँ रख दे, चाहे जहाँ ले जाय, उस बिल्लीकी मर्जी । ऐसे ही भगवान्‌का भक्त उनकी तरफ देखता है । उनके विधानमें प्रसन्न रहता है । उसे सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, संयोग-वियोग, आदर-निरादर, प्रशंसा-निन्दासे कोई सरोकार ही नहीं । अपनी तरफसे कोई चिन्ता नहीं, विचार आ जाय तो भगवान्‌को पुकारे, ‘हे नाथ ! मैं क्या करूँ ?’ इस तरह चिन्ता छोड़कर उनके शरण हो जाय ।

प्रश्न‒शरणागतका जीवन कैसा होता है ?

उत्तर‒गीताके अनुसार कर्त्तव्य-कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये, अपितु सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है । जब सम्पूर्ण कर्म भगवान्‌के समर्पण करके भगवान्‌के शरण होना है तो फिर अपने लिये धर्मके निर्णयकी जरूरत ही नहीं रही ।

मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं‒इस अपनेपनके समान योग्यता, पात्रता, अधिकार आदि कोई भी नहीं है, यह सम्पूर्ण साधनोंका सार है । इसलिये शरणागतको अपनी वृत्तियों आदिकी तरफ न देखकर भगवान्‌के अपनेपनकी तरफ ही देखते रहना चाहिये ।

भगवान्‌ कहते हैं‒मेरे शरण होकर तू चिन्ता करता है, यह मेरे प्रति अपराध है, शरणागतिमें कलंक है और इसमें तेरा अभिमान है । मेरे शरण होकर मेरा विश्वास और भरोसा न रखना‒यही मेरे प्रति अपराध है और अपने दोषोंकी चिन्ता करना तथा मिटानेमें अपना बल मानना‒यह तेरा अभिमान है । इनको तू छोड़ दे । तेरे आचरण, वृत्तियों, भाव शुद्ध नहीं हुए हैं, दुर्भाव पैदा हो जाते हैं और समयपर दुष्कर्म भी हो जाते हैं तो भी तू इनकी चिन्ता मत कर । इन दोषोंकी चिन्ता मैं करूँगा ।

भगवान्‌  जो विधान करते हैं, वह संसारके सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करते हैं । बस, शरणागतकी इस तरफ दृष्टि हो जाय तो फिर उसके लिये कुछ करना बाकी नहीं रहता ।

जो मनुष्य सच्चे हृदयसे प्रभुकी शरणागतिको स्वीकार कर लेता है तो उसका यह शरण-भाव स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है ।


भगवान्‌ भक्तके अपनेपनको ही देखते हैं, उसके गुण-अवगुणोंको नहीं देखते अर्थात् भगवान्‌को भक्तके दोष दीखते ही नहीं ।