जिसने
भगवान्को प्राप्त नहीं किया, उसने कुछ नहीं किया, कुछ नहीं किया, कुछ नहीं किया !
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भगवत्प्राप्तिमें सबसे बड़ी बाधा है‒भोग और संग्रहकी रुचि ।
दूसरोंके सुखसे सुखी होनेपर ‘भोग’ की रुचि और दूसरोंके दुःखसे दुःखी होनेपर
‘संग्रह’ की रुचि मिट जाती है ।
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जो निरन्तर बदल रहा है, उस संसारपर विश्वास करना, उसको
सच्चा मानना ही भगवत्प्राप्तिमें मुख्य बाधा है ।
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संयोगजन्य सुखकी लोलुपता ही नित्यप्राप्त भगवान्के अनुभवमें
प्रधान बाधक है ।
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भगवत्प्राप्तिमें आड़ वस्तुओंसे नहीं,
प्रत्युत वस्तुओंके महत्त्वने लगायी है ।
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अपने लिये कर्म करनेसे एवं जड़ता (शरीरादि) के साथ अपना
सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) लग जाती है ।
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परमात्मा सब देश, काल आदिमें परिपूर्ण हैं । संसारकी सत्यता
माननेसे ही मनुष्य परमात्मासे दूरीका अनुभव करता है ।
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कोई भी परिस्थिति परमात्माकी प्राप्तिका कारण नहीं है और
कोई भी परिस्थिति परमात्माकी प्राप्तिमें बाधक नहीं है; क्योंकि परमात्मा सम्पूर्ण
परिस्थितियोंसे अतीत हैं ।
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परमात्मा दूर नहीं हैं, केवल उनको पानेकी लगनकी कमी है ।
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संसार है, अभी है और अपना है‒ऐसा माननेसे ही परमात्मा है,
अभी है और अपना है‒इसका अनुभव नहीं होता ।
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साधक ‘परमात्मा है’ यह तो मान लेता है, पर
‘संसार नहीं है’ यह नहीं मानता, इसीसे परमात्मप्राप्तिमें बाधा लग रही है ।
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किसी एक मार्गका आग्रह रखनेसे तथा दूसरे मार्गोंका विरोध
करनेसे पूर्णताकी प्राप्तिमें बाधा लगती है ।
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हमारे हृदयमें परमात्माके सिवाय दूसरेकी महत्ता है‒यही
परमात्मप्राप्तिमें बाधक है ।
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भगवान्का विश्वास भगवान्से भी बड़ा है; क्योंकि जो भगवान्
सदा सब जगह रहते हुए भी नहीं मिलते, वे विश्वाससे मिल जाते हैं ।
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परमात्मतत्त्व अनुभवस्वरूप है । केवल हमारी दृष्टि उधर नहीं है ।
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कुछ करेंगे, तभी तत्त्व मिलेगा‒यह भाव देहाभिमानको पुष्ट करनेवाला
है । करनेसे जो मिलेगा, वह अनित्य होगा ।
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संसारके त्यागमें ‘विवेक’ काम आता है और भगवान्की
प्राप्तिमें ‘विश्वास’ काम आता है ।
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वास्तवमें भगवान् भी विद्यमान हैं, गुरु भी विद्यमान है,
तत्त्वज्ञान भी विद्यमान है और अपनेमें योग्यता, सामर्थ्य भी विद्यमान है । केवल
नाशवान् सुखकी आसक्तिसे ही उनके प्रकट होनेमें बाधा लग रही है !
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शरीरसे संसारका काम (व्यवहार) अथवा सेवा तो हो सकती है, पर
परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती । परमात्माकी प्राप्ति तो शरीरसे असंग होनेपर
अपने-आपसे होती है और अपने-आप ही होती है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
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