।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक पूर्णिमा, वि.सं. २०७६ मंगलवार
        कार्तिकी-पूर्णिमा, श्रीगुरुनानक-जयन्ती, 
        कार्तिक-स्नान समाप्त
     भक्तिकी अलौकिक विलक्षणता


जिस साधनमें अपना उद्योग मुख्य होता है, वह लौकिक होता है और जिस साधनमें भगवान्‌का आश्रय मुख्य होता है, वह अलौकिक होता है । कर्मयोग और ज्ञानयोग‒ये दोनों लौकिक साधन हैं; क्योंकि उसमें अपना उद्योग मुख्य है, इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (गीता ६/५) ‘अपने द्वार अपना उद्धार करें’ । परन्तु भक्तियोग अलौकिक साधन है; क्योंकि इसमें भगवान्‌का सम्बन्ध मुख्य है, इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒‘तेषामहं समुद्धर्ता’ (गीता १२/७) ‘उनका उद्धार मैं करता हूँ’ । तात्पर्य है कि भगवान्‌का सम्बन्ध होनेसे सब अलौकिक हो जाता है अन्यथा सब लौकिक ही है ।

लौकिक साधनमें जगत्‌ और जीवकी मुख्यता होती है; क्योंकि ‘यह संसार है और मैं हूँ’‒इस प्रकार जगत्‌ और जीव दोनों हमारे प्रत्यक्ष होनेसे लौकिक हैं । परन्तु अलौकिक साधनमें भगवान्‌की मुख्यता होती है; क्योंकि भगवान्‌ हमारे प्रत्यक्ष न होनेसे अलौकिक हैं । यद्यपि लौकिक और अलौकिक‒दोनों ही साधनोंमें विवेक-विचार और श्रद्धा-विश्वासकी आवश्यकता है तथापि लौकिक साधनमें विवेक-विचारकी मुख्यता है और अलौकिक साधनमें श्रद्धा-विश्वासकी मुख्यता है । तात्पर्य है कि जगत्‌के लिये और अपने लिये ‘विचार’ की आवश्यकता है एवं भगवान्‌के लिये ‘विश्वास’ की आवश्यकता है ।

विचारकी आवश्यकता उस विषयमें होती है, जिस विषयमें हम कुछ जानते हैं, कुछ नहीं जानते अर्थात् अधूरा जानते हैं । जगत्‌ और स्वयंके विषयमें हम यह तो जानते हैं कि ‘संसार है और मैं हूँ’ पर ‘संसार क्या है ? मैं क्या हूँ ? इनका स्वरूप क्या है?’‒इस प्रकार हम इनको तत्त्वसे (यथार्थ रूपसे) नहीं जानते । इसलिये जगत्‌ और जीव‒दोनों विचारके विषय हैं ।

विश्वासकी आवश्यकता उस विषयमें होती है, जिस विषयमें हम कुछ भी नहीं जानते, जो हमारे लिये सर्वथा अज्ञात है । भगवान्‌के विषयमें हम कुछ नहीं जानते, इसलिये भगवान्‌ विश्वासके विषय हैं । तात्पर्य है कि ‘भगवान्‌ हैं’‒इस प्रकार उनपर विश्वास ही हो सकता है, ‘वे कैसे हैं’‒इस प्रकार उनपर विचार नहीं हो सकता, तर्क नहीं चल सकता । भगवान्‌को मानने अथवा न माननेमें मनुष्य स्वतन्त्र है ।


जिसको हम देखते हैं अथवा जानते हैं, उसपर विश्वास नहीं होता; क्योंकि वह तो हमारे सामने ही है । विश्वास उसीपर होता है है, जिसको देखा अथवा जाना नहीं है, प्रत्युत सुना और माना है । जैसे माता-पिताको हमने देखा अथवा जाना नहीं है, प्रत्युत सुना और माना है । तात्पर्य है कि माता-पिताको हम केवल विश्वासके आधारपर ही अपना मानते हैं, इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है । ऐसे ही भगवान्‌को भी हम शास्त्रोसे अथवा सन्तोंसे सुनकर मानते हैं । शास्त्र और सन्त भगवान्‌के विषयमें कहते हैं कि भगवान्‌ हमारे हैं, हमारेमें हैं, अभी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वसुहृद् है, सर्वसमर्थ हैं और अद्वितीय हैं । इसपर विश्वास करना हमारा काम है और विश्वास करने अथवा न करनेमें हम स्वतन्त्र हैं ।