भगवान्को प्राप्त तो कर सकते हैं, पर उनका वर्णन, चिन्तन,
ध्यान नहीं कर सकते । प्राप्त इसलिये कर सकते हैं कि हम
उनके ही अंश हैं । भगवान्की पूरी महिमाको बतानेवाले कोई शब्द, विशेषण,
युक्ति या दृष्टान्त संसारकी किसी भाषामें है ही नहीं । भगवान् तो सर्वथा ही
अलौकिक हैं । इसलिये शास्त्रोंसे अथवा सन्तोंसे सुनकर हम
भगवान्को मान तो सकते हैं, पर जान नहीं सकते । भगवान्को केवल विश्वाससे और उनकी
कृपासे ही जान सकते हैं । इसके सिवाय और कोई उपाय है ही नहीं ।
वास्तवमें
किसी-न-किसीपर विश्वास किये बिना मनुष्य रह सकता ही नहीं । अगर वह भगवान्पर विश्वास नहीं करेगा तो फिर अपने-आपपर अथवा संसारपर विश्वास
करेगा । अपने-आपपर विश्वास करनेसे अगर वह शरीरको अपना स्वरूप मान लेगा तो उससे सम्पूर्ण
दोषोंकी उत्पत्ति होगी‒‘देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति’
। शरीर-संसारपर विश्वास करना महान् घातक है । शरीर-संसारपर
विश्वास करके ही जीव जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ा है, अन्य कोई कारण नहीं है । इसी
तरह भगवान्पर विवेक-विचार करना महान् घातक है, क्योंकि ऐसा करनेसे मनुष्य भगवान्को
बुद्धिका विषय बना लेगा और कोरी बातें सीख जायगा, हाथ कुछ लेगेगा नहीं ! सीखा हुआ
ज्ञान अभिमान पैदा करता है और भगवान्से विमुख करता है, जो मनुष्यके पतनका हेतु है
।
संसारपर विश्वास करनेसे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है
। जैसे, वस्तुपर विश्वास करनेसे लोभ उत्पन्न होता है । व्यक्ति (शरीर) पर विश्वास
करनेसे मोह उत्पन्न होता है । परिस्थितिपर विश्वास करनेसे अभिमान उत्पन्न होता है
कि ‘मैं बड़ा धनी हूँ, ऊँचे पदवाला हूँ’ आदि, अथवा दीनता उत्पन्न होती है कि ‘मेरे
पास कुछ नहीं है, मैं बड़ा अभागा हूँ’ आदि । अवस्थापर विश्वास करनेसे परिच्छिन्नता
उत्पन्न होती है कि ‘मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ’ आदि । यद्यपि कोई भी मनुष्य दोषी
नहीं बनना चाहता, तथापि नाशवान्पर विश्वास करके वह न चाहते हुए भी दोषी बन ही
जाता है । कारण कि नाशवान्पर
विश्वास ही एक ऐसा दोष है, जिससे अनन्त दोष पैदा होते हैं ।
मनुष्य देश, काल, वस्तु, क्रिया, घटना, परिस्थिति और
अवस्थाके परिवर्तनका अनुभव करता है और अभावका भी । फिर भी वह उसपर विश्वास करता है
तो यह अन्धविश्वास है । वास्तवमें विश्वास
अन्धा ही होता है । विश्वासकी आँख नहीं होती और जहाँ आँख होती है, वहाँ
विश्वास नहीं होता । कारण कि जो प्रत्यक्ष दीखता है, उसपर विश्वास क्या करें ?
परन्तु जैसा दीखता है, वैसा न मानकर और तरहसे मानना ‘अन्धविश्वास’ कहलाता है; जैसे‒संसार प्रत्यक्ष बदलते
हुए और नष्ट होते हुए दीखता है, फिर भी उसपर विश्वास करना ‘अन्धविश्वास’ है ।
विवेक-विरुद्ध विश्वास ही अन्धविश्वास होता है । इस अन्धविश्वासका परिणाम यह होता है कि वह अधर्मको
धर्म और उलटेको सुलटा मान लेता है ! वह पराधीनताको स्वाधीनता, तुच्छताको
श्रेष्ठता, पतनको उत्थान मान लेता है ।
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