मनुष्य भगवान्का अंश होनेके नाते स्वयं बड़ा है, पर संसारपर
विश्वास करके वह उसके अधीन हो जाता है, छोटा हो जाता है, और इसको अपना बड़प्पन मान
लेता है । संसारमें जितना दुःख हो रहा है, सन्ताप हो रहा
है, अनर्थ हो रहा है, जन्म-मरण हो रहा है, वह सब संसारपर विश्वास करनेसे ही हो रहा
है ।
मनुष्य सोचता है कि हमारे पास धन हो जायगा तो हम बड़े आदमी
हो जायँगे । जिसके पास थोड़ा धन हो, उसको छोटी पार्टी कहते हैं और जिसके पास ज्यादा
धन हो, उसको बड़ी पार्टी कहते हैं तो बड़ा धन ही हुआ, पार्टीकी तो फजीती हुई !
तात्पर्य है कि अगर धनके कारण मनुष्य अपनेको बड़ा मानता है तो धन बड़ा हुआ, मनुष्य
छोटा (निकृष्ट) हुआ । पदके कारण अपनेको बड़ा मानता है तो पद बड़ा हुआ, वह छोटा हुआ ।
चेलोंके कारण अपनेको बड़ा मानता है तो चेले बड़े हुए, वह छोटा हुआ । लोग हमें बहुत
मानते हैं, इसलिये हम बड़े हो गये तो वास्तवमें लोग बड़े हुए, खुद तो छोटा ही हुआ ।
हम ब्राह्मण हैं, इसलिये हम बड़े हैं तो वास्तवमें जाति बड़ी हुई, खुद तो छोटा ही
हुआ । हम मिनिस्टर हैं, इसलिये हम बड़े हैं तो वास्तवमें मिनिस्टरी बड़ी हुई, खुद तो
छोटा ही हुआ । इस प्रकार बल, विद्या, मान, आदर, प्रशंसा
आदि जिस चीजसे मनुष्य अपनेको बड़ा मानता है, वह चीज तो बड़ी हो जाती है और मनुष्य
छोटा हो जाता है । परन्तु छोटा होनेपर भी वह अपनेको बड़ा मान लेता है ! नाशवान्के
सम्बन्धसे उसको यह होश ही नहीं रहता कि दूसरी वस्तुके कारण मैं बड़ा कैसे हुआ ?
स्वयं अविनाशी और अपरिवर्तनशील होते हुए भी वह विनाशी और परिवर्तनशीलसे अपनी
उन्नति, बड़प्पन मानता है‒यह कितने आश्चर्यकी बात है ! सांसारिक वस्तुओंसे अपनेको
बड़ा मानना वास्तवमें हमारी फजीती है, पतन है, परतन्त्रता है, निन्दा है, तुच्छता
है ।
मनुष्य
जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसीके पराधीन हो जाता है । इच्छा करनेवाला तो छोटा हो
जाता है, पर इच्छित वस्तु बड़ी हो जाती है । परन्तु वह
भगवान्की इच्छा करता है तो वह बड़ा हो जाता है अर्थात् उसका वास्तविक बड़प्पन प्रकट
हो जाता है । कारण कि भगवान् बड़े हैं, इसलिये वे दूसरेको भी बड़ा ही बनाते हैं ।
परन्तु संसार तुच्छ है, इसलिये वह दूसरोंको भी तुच्छ ही बनाता है ।
प्रकृति और उसका कार्य शरीर तथा संसार ‘पर’ अर्थात् दूसरा
है । जो ‘पर’ को लेकर अपनेको बड़ा मानता है, वह वास्तवमें पराधीन हो जाता है ।
परन्तु भगवान् ‘स्वकीय’ अर्थात् अपने हैं । जो अपना होता है, उसकी अधीनता पराधीनता नहीं होती ।
जैसे माँ अपनी होती है तो उसके अधीन होना गुण है, अवगुण नहीं है। लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं कि यह मातृभक्त अथवा पितृभक्त
है । उसकी कोई निन्दा नहीं करता कि यह तो माँका गुलाम है ! कारण कि शरीरकी
दृष्टिसे माता-पिता हमसे बड़े हैं ।
|