।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, वि.सं. २०७६ गुरुवार
     भक्तिकी अलौकिक विलक्षणता


मनुष्य भगवान्‌का अंश होनेके नाते स्वयं बड़ा है, पर संसारपर विश्वास करके वह उसके अधीन हो जाता है, छोटा हो जाता है, और इसको अपना बड़प्पन मान लेता है । संसारमें जितना दुःख हो रहा है, सन्ताप हो रहा है, अनर्थ हो रहा है, जन्म-मरण हो रहा है, वह सब संसारपर विश्वास करनेसे ही हो रहा है ।

मनुष्य सोचता है कि हमारे पास धन हो जायगा तो हम बड़े आदमी हो जायँगे । जिसके पास थोड़ा धन हो, उसको छोटी पार्टी कहते हैं और जिसके पास ज्यादा धन हो, उसको बड़ी पार्टी कहते हैं तो बड़ा धन ही हुआ, पार्टीकी तो फजीती हुई ! तात्पर्य है कि अगर धनके कारण मनुष्य अपनेको बड़ा मानता है तो धन बड़ा हुआ, मनुष्य छोटा (निकृष्ट) हुआ । पदके कारण अपनेको बड़ा मानता है तो पद बड़ा हुआ, वह छोटा हुआ । चेलोंके कारण अपनेको बड़ा मानता है तो चेले बड़े हुए, वह छोटा हुआ । लोग हमें बहुत मानते हैं, इसलिये हम बड़े हो गये तो वास्तवमें लोग बड़े हुए, खुद तो छोटा ही हुआ । हम ब्राह्मण हैं, इसलिये हम बड़े हैं तो वास्तवमें जाति बड़ी हुई, खुद तो छोटा ही हुआ । हम मिनिस्टर हैं, इसलिये हम बड़े हैं तो वास्तवमें मिनिस्टरी बड़ी हुई, खुद तो छोटा ही हुआ । इस प्रकार बल, विद्या, मान, आदर, प्रशंसा आदि जिस चीजसे मनुष्य अपनेको बड़ा मानता है, वह चीज तो बड़ी हो जाती है और मनुष्य छोटा हो जाता है । परन्तु छोटा होनेपर भी वह अपनेको बड़ा मान लेता है ! नाशवान्‌के सम्बन्धसे उसको यह होश ही नहीं रहता कि दूसरी वस्तुके कारण मैं बड़ा कैसे हुआ ? स्वयं अविनाशी और अपरिवर्तनशील होते हुए भी वह विनाशी और परिवर्तनशीलसे अपनी उन्नति, बड़प्पन मानता है‒यह कितने आश्चर्यकी बात है ! सांसारिक वस्तुओंसे अपनेको बड़ा मानना वास्तवमें हमारी फजीती है, पतन है, परतन्त्रता है, निन्दा है, तुच्छता है ।

मनुष्य जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसीके पराधीन हो जाता है । इच्छा करनेवाला तो छोटा हो जाता है, पर इच्छित वस्तु बड़ी हो जाती है । परन्तु वह भगवान्‌की इच्छा करता है तो वह बड़ा हो जाता है अर्थात् उसका वास्तविक बड़प्पन प्रकट हो जाता है । कारण कि भगवान्‌ बड़े हैं, इसलिये वे दूसरेको भी बड़ा ही बनाते हैं । परन्तु संसार तुच्छ है, इसलिये वह दूसरोंको भी तुच्छ ही बनाता है ।


प्रकृति और उसका कार्य शरीर तथा संसार ‘पर’ अर्थात् दूसरा है । जो ‘पर’ को लेकर अपनेको बड़ा मानता है, वह वास्तवमें पराधीन हो जाता है । परन्तु भगवान्‌ ‘स्वकीय’ अर्थात् अपने हैं । जो अपना होता है, उसकी अधीनता पराधीनता नहीं होती । जैसे माँ अपनी होती है तो उसके अधीन होना गुण है, अवगुण नहीं है। लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं कि यह मातृभक्त अथवा पितृभक्त है । उसकी कोई निन्दा नहीं करता कि यह तो माँका गुलाम है ! कारण कि शरीरकी दृष्टिसे माता-पिता हमसे बड़े हैं ।