भगवान् स्वरूपकी दृष्टिसे अपने हैं, इसलिये
भगवान्की अधीनता पराधीनता नहीं है, प्रत्युत स्वाधीनताका मूल है, स्वाधीन होनेका
खास उपाय है । परन्तु जो सुख लेनेकी
इच्छासे संसार या भगवान्को अपना मानता है, वह पराधीन हो जाता है । सुख चाहनेवाला
कभी स्वाधीन नहीं हो सकता । कारण कि ‘पर’ (शरीर) के अधीन हुए बिना सुखका भोग हो
सकता ही नहीं ।
‘पर’ को अपना मानना पराधीनताका मूल है । जबतक हम शरीरको अपना
मानते रहेंगे, तबतक पराधीनता कभी छूटेगी नहीं, छूट सकती ही नहीं । शरीरके छूटनेपर भी पराधीनता नहीं छूटेगी । शरीर (‘पर’)
तो बदलता रहेगा, पर पराधीनता निरन्तर रहेगी । शरीर टिकेगा नहीं और पराधीनता मिटेगी
नहीं । अगर कोई कहे कि मुक्ति (स्वाधीनता) पानेके लिये तो शरीरकी सहायता लेनी आवश्यक
है, तो यह मान्यता भी ठीक नहीं है । स्वाधीनताका साधन पराधीन कैसे हो सकता है ? पराधीनताके
द्वारा स्वाधीनता कैसे प्राप्त हो सकती है ? अतः मुक्तिको,
तत्त्वज्ञानको, प्रेमको प्राप्त करनेमें शरीर सहायक नहीं है, प्रत्युत शरीरका
त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) सहायक है । त्यागका अर्थ है‒शरीरमें अहंता-ममताका त्याग ।
बन्धन अहंता-ममतासे होता है, शरीरसे नहीं । शरीरको सत्ता और महत्ता देकर
उसको अपना मानते हुए कभी मुक्ति नहीं हो सकती । इसलिये
शरीरको आवश्यकतानुसार अन्न-जल-वस्त्र तो देना है, पर शरीरसे सम्बन्ध जोड़कर अन्न-जल-वस्त्र
लेनेवाला नहीं बनना है । देनेवाला
मालिक होता है और लेनेवाला गुलाम होता है । शरीरकी सेवा
करनेवाला परतन्त्र नहीं होता, प्रत्युत उससे कुछ चाहनेवाला परतन्त्र होता है ।
सेवा करनेवाला तो ऊँचा उठ जाता है, पर लेनेकी इच्छावालेका पतन ही होता है ।
संसार तो दूसरेको पराधीन बनाता है, पर भगवान्
किसीको कभी अपने पराधीन नहीं बनाते, प्रत्युत उसको अपने समान, अपना सखा बनाते है, जैसे, सुग्रीव भोगी था, विभीषण साधक था और निषादराज सिद्ध
था, पर भगवान्ने उन तीनोंको ही अपना सखा बनाया । किसीको भी अपना चेला (अधीन) नहीं
बनाया । भगवान् जीवको अपना सखा ही मानते हैं । उपनिषद्में आया है‒
द्वा
सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
(मुण्डक॰ ३/१/१, श्वेताश्वतर॰ ४/६)
भगवान् जिस रीतिसे दूसरेको अपने समान बनाते हैं, उस रीतिसे दूसरा कोई अपने
समान बना सकता ही नहीं । दूसरे तो अपनी वस्तुएँ देकर
अपने बराबर बनाते हैं, पर भगवान् अपने-आपको देकर अपने बराबर बनाते हैं ।
जैसे, कोई राजा किसीको अपने समान बनाता है तो उसको अपना आधा राज्य दे देता है, ऐसा
नहीं कि उसको पूरा राज्य देकर खुद उसका दास बन जाय । परन्तु भगवान् अपने-आपको दे देते हैं और खुद भक्तके दास हो जाते हैं‒
मैं
तो हू भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि ।
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