।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं. २०७६ शनिवार
     भक्तिकी अलौकिक विलक्षणता


अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतत्र इव द्विज
                                                 (श्रीमद्भागवत ९/४/६३)

‘हे द्विज ! मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ ।’

जैसे माँ प्रेमके कारण बालकके वशमें हो जाती है, ऐसे ही भगवान्‌ प्रेमके कारण भक्तके वशमें हो जाते हैं । भगवान्‌का स्वभाव है ‒‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४/११) । ‘जो जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ।’ इसलिये जो भगवान्‌के अधीन होता है, भगवान्‌ उसके अधीन हो जाते हैं, उसको सबसे बड़ा बना देते हैं ।

‘कोयला होय नहिं ऊजला सौ मन साबुन लगाय’‒कोयलेपर सौ मन साबुन लगा दें तो भी वह साफ नहीं होगा; परन्तु उसको अग्निमें रख दें तो वह चमकाने लगेगा; क्योंकि वह अग्निसे अलग होनेपर ही काला हुआ है । अगर चमकते कोयले (अंगार) से लेकर लकीर खींची जाय तो वह भी काली ही निकलेगी; क्योंकि वह अग्निसे अलग हो गयी । ऐसे ही जीव भगवान्‌से अलग होनेपर ही काला, तुच्छ हुआ है । अगर वह भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़ ले तो वह चमकने लगेगा । तात्पर्य है कि जीव भगवान्‌से अलग होकर अपनेको कितना ही बड़ा मान ले, त्रिलोकीका अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्डोंका अधिपति हो जाय तो भी वास्तवमें वह छोटा-का-छोटा, त्रिलोकीका गुलाम ही रहेगा । परन्तु वह भगवान्‌का दास हो जाय तो बड़े-से-बड़ा (नरसे नारायण) हो जायगा । नाशवान्‌के साथ मिलनेसे अविनाशी (जीव) की फजीती ही है । उसकी इज्जत तो अविनाशीके साथ मिलनेसे ही है ।

संसारमें भगवान्‌ और उनके भक्त‒ये दो ही दूसरेको बड़ा बनानेवाले हैं‒

  हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
          स्वारथ मीत सकल जग माहीं । सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ॥
                                   (मानस, उत्तर. ४७/३)

ये दोनों खुद बड़े हैं, इसलिये दूसरोंको भी बड़ा ही बनाते हैं, किसीको भी छोटा नहीं बनाते । कारण कि जो खुद छोटा होता है, वही दूसरेको छोटा बनाता है । जो खुद पराधीन होता है, वही दूसरेको पराधीन बनाता है । संसार कभी किसीको बड़ा बनाता ही नहीं, बना सकता ही नहीं । इसलिये जो संसारका आश्रय लेता है, वह छोटा हो जाता है । परन्तु जो भगवान्‌का आश्रय लेता है, उनके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वह बड़ा हो जाता है‒

बड़ सेयाँ बड़  होत है, ज्यों बामन भुज दंड ।
तुलसी  बड़े  प्रताप   ते,    दंड गयउ ब्रह्मंड ॥