भगवान्ने मनुष्यको तीन शक्तियाँ प्रदान की हैं‒करनेकी
शक्ति, जाननेकी शक्ति और माननेकी शक्ति । प्राप्त करनेकी शक्ति मनुष्यमें नहीं है,
इसलिये संसारकी कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं होती, हो सकती ही नहीं । संसार एक क्षण
भी नहीं टिकता, निरन्तर बदलता रहता है, फिर वह प्राप्त कैसे हो सकता है ? अगर संसार वास्तवमें प्राप्त होता तो कभी बिछुड़ता नहीं और
हमारी भी सदाके लिये तृप्ति हो जाती । परन्तु संसारसे कभी किसीकी तृप्ति नहीं
होती, प्रत्युत तृष्णा बढ़ती है‒‘जिमि प्रतिलाभ लोभ
अधिकाई’ । भोगोंसे
होनेवाली थकावटको ही मनुष्य भूलसे तृप्ति मान लेता है; जैसे‒भोजन करते-करते जब और
खानेकी सामर्थ्य नहीं रहती अर्थात् थकावट (असमर्थता) हो जाती है, तब उसको तृप्ति
कह देते हैं । परन्तु वास्तवमें यह तृप्ति नहीं होती, इसलिये पुनः भूख लग जाती है
। प्राप्ति
वास्तवमें परमात्माकी ही होती है, जो एक बार होती है और सदाके लिये होती है ।
कारण कि वास्तवमें परमात्मा सबको नित्य प्राप्त हैं, केवल अप्राप्तिका वहम मिटता
है ।
‘करने’ और ‘जानने’ की शक्तिका सदुपयोग करके मनुष्य
शरीर-संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और स्वरूपका बोध कर सकता है । परन्तु ‘मानने’ की
शक्तिका सदुपयोग करनेसे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद और स्वरूप-बोधके साथ-साथ
भगवत्प्रेमकी प्राप्ति भी हो जाती है । तात्पर्य है कि
यद्यपि लौकिक साधन (कर्मयोग और ज्ञानयोग) मनुष्यके करनेका है, तथापि भगवान्पर
विश्वास करनेसे जो काम साधकको करना चाहिये, वह काम (मुक्ति) भी भगवान् कर देते
हैं और जो काम भगवान्के करनेका है, वह काम (दर्शन और प्रेम) भी भगवान् कर देते
हैं[1] (गीता १०/१०-११) । जैसे किसी नगरमें एक व्यक्ति अपने घरमें बन्द है । उस नगरके सब घर नगरकी चहारदीवारी (परकोटे) में बन्द है
। अगर वह व्यक्ति अपने घरसे निकलना चाहे तो यह उसके हाथकी बात है, पर नगरकी
चाहरदीवारीसे निकलना उसके हाथकी बात नहीं है, प्रत्युत वहाँके राजाके हाथकी बात है
। अगर राजा चाहे तो वह चहारदीवारीका दरवाजा भी खोल सकता है और उस व्यक्तिके घरका दरवाजा भी खोल सकता है, न खुले तो तोड़ भी सकता है ।
ऐसे ही भगवान् भक्तका सब काम कर देते हैं, उसके
करनेयोग्य काम भी कर देते हैं और अपने करनेयोग्य काम भी कर देते हैं ! तात्पर्य है
कि विवेक-विचारसे तो केवल लौकिक साधन सिद्ध होता है, पर विश्वाससे लौकिक और अलौकिक
दोनों साधन सिद्ध हो जाते हैं । इसलिये माननेकी शक्ति (विश्वास) क्रियाशक्ति और
विवेकशक्तिसे भी श्रेष्ठ और विलक्षण है ।
(मानस, अरण्यकाण्ड ३६/५)
‘जीव पाव निज सहज सरूपा’‒यह कर्मयोग और ज्ञानयोगका फल है ।
|