।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
   मार्गशीर्ष कृष्ण षष्ठी, वि.सं. २०७६ सोमवार
     भक्तिकी अलौकिक विलक्षणता


शरीर भी हमारा नहीं है, मन-बुद्धि-प्राण भी हमारे नहीं हैं और उनके द्वारा होनेवाले चिन्तन-ध्यान-समाधि भी हमारे नहीं हैं‒इस प्रकार ‘पर’ को अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरको अपना न माननेसे मनुष्य स्वाधीन (मुक्त) हो जाता है, उसकी पराधीनता सर्वथा मिट जाती है । स्वाधीन होनेपर मनुष्य भगवत्प्रेमका अधिकारी हो जाता है; क्योंकि जो पराधीन है, वह प्रेम नहीं करता, प्रत्युत मोह करता है । प्रेमकी प्राप्ति ‘पर’ के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत ‘पर’ के त्यागसे और ‘स्वकीय’ के द्वारा होती है । परन्तु भगवान्‌की कृपासे स्वाधीन अर्थात् मुक्त होनेसे पहले भी प्रेमकी प्राप्ति हो सकती है । जब भक्त विश्वासपूर्वक केवल भगवान्‌को अपना मान लेता है, तब उसका भगवान्‌में प्रेम हो जाता है । कारण कि प्रेमकी प्राप्ति अपने बल, तप, योग्यता आदिसे नहीं होती, प्रत्युत भगवान्‌को अपना माननेसे होती है । बल, तप, योग्यता आदिके द्वारा जो वस्तु मिलेगी, वह बल, तप आदिसे कम मूल्यकी ही होगी । अगर किसी साधनसे साध्य मिलेगा तो वह साधनसे छोटा ही होगा । इसलिये भगवान्‌को अपना माने बिना और कोई प्रेम-प्राप्तिका उपाय हो ही नहीं सकता । भगवान्‌ भक्तके अपनेपनको ही देखते हैं, यह नहीं देखते कि वह बद्ध है या मुक्त[1] । जैसे बालक माँको पुकारता है तो माँ बच्‍चेकी योग्यता, बल, विद्या आदिको न देखकर उसके अपनेपनको देखती है और उसको गोदमें ले लेती है, ऐसे ही जब भक्त अपनी स्थितिसे असन्तुष्ट होकर, पराधीनतासे व्याकुल होकर भगवान्‌को पुकारता है, तब भगवान्‌ उसको अपना प्रेम प्रदान करते हैं । तात्पर्य है कि शरीर-संसारको अपना न माननेसे लौकिक साधन सिद्ध हो जाता है और भगवान्‌को अपना माननेसे अलौकिक साधन सिद्ध हो जाता है ।

जिनमें मुक्तिकी इच्छा है और जो मुक्तिको ही सर्वोपरि मानते हैं, ऐसे साधक प्रेम (भक्ति) की प्राप्ति तो दूर रही, प्रेमकी बातको भी समझ नहीं सकते ! जैसे स्वार्थी आदमीकी दृष्टि दूसरेके हितकी तरफ जाती ही नहीं, ऐसे ही लौकिक साधनवाले मनुष्यकी दृष्टि अलौकिक प्रेमकी तरफ जाती है नहीं । उसमें प्रेम-तत्त्वको समझनेकी सामर्थ्य ही नहीं होती । प्रेमकी बातको वही समझ सकता है, जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, भगवान्‌पर दृढ़ विश्वास है, भगवान्‌की कृपाका आश्रय है और जो भक्ति, भक्त और भगवान्‌का तिरस्कार नहीं करता, ऐसा साधक अगर मुक्त हो जाय तो उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता । अतः भगवान्‌ कृपापूर्वक उसके मुक्तिके अखण्डरसको फीका करके प्रेमका अनन्तरस प्रदान कर देते हैं । अगर वह पहलेसे ही भगवान्‌पर दृढ़ विश्वास करके अपनापन कर ले तो भगवान्‌ कृपापूर्वक उसको मुक्ति और भक्ति (प्रेम)-दोनों प्रदान कर देते हैं ।



[1]  रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥
                                                           (मानस, बालकाण्ड २९/३)