श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान्ने कहा है‒
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
(८/७)
इसलिये सब समय तू निरन्तर मेरा ही स्मरण कर और युद्ध
(कर्तव्य-कर्म) भी कर । भगवान्का स्मरण सब समय हो सकता है, किन्तु युद्ध सब समय
नहीं हो सकता, अर्जुनके सम्मुख युद्धरूपी कर्त्तव्य ही था । अन्य लोगोंके सामने
अपने-अपने घरोंके काम हैं । युद्धकी तरह घरोंके काम-धन्धे भी सभी समय नहीं हो सकते
। इस प्रकार भगवान्का स्मरण करते हुए काम करना, काम करते हुए भगवान्का स्मरण करना
एवं भगवान्का ही काम करना । इन तीन विकल्पोंमें भगवत्स्मरण ही प्रमुख है, कार्य
गौण है । दूसरे विकल्पमें कार्य ही प्रमुख है और भगवत्स्मरण गौण है और तीसरे
विकल्पमें भगवान्के प्रति अनन्यभाव है ।
प्रायः लोग काम करते हुए भगवान्को
भूल जाते हैं । इसमें
स्वयंकी असावधानी तो खास कारण है ही, परन्तु साथमें एक भारी भूल भी है । यह एक सिद्धान्त है कि जिसके प्रति ममता होती है, उसका स्वतः
ही स्मरण होता है । लोग काम-धन्धोंको अपना मानते हैं, उनके प्रति ममता रखते हैं,
अतः काम-धन्धे ही याद आते हैं, भगवान् नहीं । भगवान् याद आते भी हैं, तो
कुछ समयके बाद उन्हें फिर भूल जाते हैं । अतः यह दृढ़ निश्चय कर लेना चाहिये कि
हमें घरका काम करना ही नहीं है । काम तो भगवान्का ही करना है । ‘अंजन कहा आँख जेहिं फूटे’ जिस अंजनसे आँख फूट जाय, वह
अंजन कैसा ? उससे हमें क्या मतलब ? घरका काम करते हुए
भगवान्को भूल जाय तो ऐसे कामसे क्या लेना ? अतः साधकको यह मान लेना चाहिये
कि घर हमारा नहीं, काम हमारा नहीं और हम भी हमारे नहीं । घर भी भगवान्का, काम भी
भगवान्का और हम भी भगवान्के हैं । भगवान्की शक्तिसे
ही भगवान्की प्रसन्नताके लिये हम भगवान्का ही काम कर रहे हैं‒इस प्रकार दृढ़
भावनासे भगवान्के प्रति ममत्व पैदा हो जायगा और फिर भगवान्का स्मरण स्वतः ही
होने लगेगा । स्मरणके लिये प्रयासकी कोई आवश्यकता नहीं रहेगी । किन्तु जबतक
घर आदिको अपना मानते रहेंगे, तबतक स्मरणमें भूल होगी ही । जैसे हम किसी
धर्मशालामें ठहरते हैं तो यह बात जँच जाती है कि यह धर्मशाला हमारी नहीं है । इसी प्रकार
घरमें रहते हुए यह बात जँच जानी चाहिये कि यह घर हमारा नहीं है, यहाँ तो थोड़े
समयके लिये हम रहने आये हैं । इस बातको बहुत ही दृढ़तापूर्वक पकड़ लेना चाहिये कि यह
घर मेरा नहीं, धनादि पदार्थ मेरे नहीं, परिवार मेरा नहीं, शरीर मेरा नहीं । ये तो
थोड़े समयके लिये मिले हुए हैं । समय पूरा होते ही इनसे वियोग हो जायगा । यदि ये
मेरे होते हो सदा मेरे साथ रहते; किन्तु इनपर न तो कोई अधिकार ही चलता है, न इनमें हम इच्छानुसार
परिवर्तन ही कर सकते हैं और न इनको मरने, नष्ट होनेसे बचा ही सकते हैं । तो ये
पदार्थ आदि मेरे कैसे हो गये ? किसी भी युक्तिसे इनके साथ ‘मेरापन’ सिद्ध नहीं होता । अतः
ये मेरे नहीं हैं, नहीं हैं, नहीं हैं ।
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