मेरे तो एकमात्र भगवान् ही हैं; क्योंकि
भगवान् पहले भी मेरे थे, अब भी मेरे हैं और आगे भी रहेंगे । सांसारिक पदार्थ पहले भी मेरे नहीं थे,
आगे रहेंगे नहीं और वर्तमानमें भी इनसे निरन्तर ही वियोग हो
रहा है । संसारके साथ कभी संयोग है ही नहीं और भगवान्के साथ कभी वियोग है ही नहीं
।
भगवत्प्राप्तिकी
इच्छा कभी भी मिटती नहीं । मनुष्य
चाहे इस बातको माने या न माने; किन्तु उसके हृदयमें यह कामना अवश्य रहती है कि मैं
सदाके लिये पूर्ण सुखी हो जाऊँ । सभी बन्धनोंसे मुक्त हो जाऊँ, मेरे पास कभी दुःख
न आये । यही भगवत्प्राप्तिकी इच्छा है । यह इच्छा
अवश्यमेव पूरी होती है, क्योंकि यह वास्तविक एवं सच्ची इच्छा है ।
संसारकी इच्छा बिलकुल नकली है । यह इच्छा बनती
और मिटती रहती है, किन्तु कभी पूरी नहीं होती । लोगोंने मिथ्या धारणा कर रखी है कि संसारकी इच्छा मिटती
नहीं, परन्तु वास्तविक बात यह है कि यह इच्छा टिकती नहीं, बदलती रहती है । बचपनमें
कोई और इच्छा थी, जवानीमें कोई और हो जाती है एवं वृद्धावस्थामें तो इच्छाका रूप
ही बदल जाता है । संसार स्वयं परिवर्तनशील है । अतः संसारकी इच्छा भी परिवर्तनशील
ही है । शरीर भी परिवर्तनशील ही है । अतः संसारकी इच्छा शरीरकी ही इच्छा है,
व्यक्तिकी स्वयंकी इच्छा नहीं है । स्वयं (जीव) अपरिवर्तनशील है, परमात्मा भी
अपरिवर्तनशील है । इसलिये परमात्मप्राप्तिकी इच्छा ही
स्वयंकी इच्छा है । सांसारिक पदार्थ शरीरको ही प्राप्त हो सकते हैं,
स्वयंको नहीं । स्वयंको तो परमात्मा ही प्राप्त हो सकते हैं; क्योंकि संसार, सांसारिक
पदार्थ एवं शरीरकी जातीय एकता है । इसी प्रकार परमात्मा
एवं स्वयं (जीव) की जातीय एकता है, सम्बन्ध सजातीयका ही होता है, विजातीयका नहीं ।
संसारके अंशको संसारकी इच्छा है एवं परमात्माके अंशको परमात्माकी इच्छा है ।
संसारका काम, घर-परिवारका काम भी;
शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदिका ही काम है, हमारा काम नहीं है । हमारा काम तो भगवान्का भजन करना एवं भगवान् और उनके तत्त्वको
प्राप्त करनेका ही है । हमें एकमात्र भगवान्की ही आवश्यकता है एवं
भगवत्प्राप्तिकी इच्छा ही हमारी वास्तविक इच्छा है । संसारका
काम तो पराया काम है ।
उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि जीवका परमात्माके साथ
ही स्वतःसिद्ध नित्य सम्बन्ध है । परन्तु अज्ञानवश संसारको एवं संसारको एवं
संसारके कामको अपना मान लेनेके कारण ही जीव कार्य करते समय भगवान्को भूल जाता है
। जीव यदि दृढ़तापूर्वक भगवान्के साथ अपने नित्य, सत्य,
शाश्वत सम्बन्धको स्वीकार कर केवल उन्हें अपना मान लें एवं भगवत्प्राप्तिके
अतिरिक्त किसी भी कार्यको अपना कार्य न माने तो वह भगवान्को कभी भूल ही नहीं सकता
। संसारकी इच्छा करने एवं संसारके साथ सम्बन्ध माननेके कारण ही
भगवत्प्राप्तिमें भूल होती है । अतः अपने वास्तविक
सम्बन्ध एवं कार्यको पहिचानना चाहिये ।
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