माँकी चेष्टाको बालक समझ सकता है क्या ? माँकी चेष्टाको
समझनेकी बालकमें ताकत है क्या ? बालकमें वह ताकत है ही नहीं, जो माँकी चेष्टाको
समझ सके । बालकको तो माँकी चेष्टाको समझनेकी जरूरत ही
नहीं है । वह तो बस माँकी गोदमें पड़ा रहे । ऐसे ही ‘भगवान् क्या करते हैं, कैसे
करते हैं’‒इसे समझनेकी हमें कोई जरूरत नहीं है । वे कैसे हैं, कहाँ रहते हैं‒इसको
जाननेकी हमें कोई जरूरत नहीं है । क्या बच्चा माँको जानता है कि माँ
कहाँ पैदा हुई है ? किसकी बेटी है ? किसकी बहिन है ? किसकी स्त्री है ? किसकी
देवरानी है ? किसकी जेठानी है ? किसकी ननद है ? किसकी बुआ है ? माँ कहाँ
रहती है ? किससे इसका पालन होता है ? माँ क्या
करती है ? किस समय किस धन्धेमें लगी रहती है ? आदि बातोंको बालक जानता ही
नहीं और उसको जाननेकी जरूरत भी नहीं है । ऐसे ही हमारी
माँ (भगवान्) कैसी है ? कौन है ? वह सुन्दर
है कि असुन्दर है ? वह क्रूर है कि दयालु है ? वह ठीक है कि बेठीक है ? वह
हमारे अनुकूल है कि प्रतिकूल है ? आदि-आदि बातोंसे हमें क्या मतलब ! बस, वह हमारी माँ है । वह हमारे
लिये जो ठीक होगा, वह आप ही करेगी । हम क्या समझें कि यह ठीक है या बेठीक ?
अपना ठीक-बेठीक समझना भी क्या हमें आता है ? है हमें यह ज्ञान ? क्या हमें यह
दीखता है ? अरे ! सूरदासको क्या दीखे ! हम क्या समझे कि यह ठीक है कि बेठीक; अच्छा
है कि मन्दा है । इन
बातोंके समझनेकी कुछ भी जरूरत नहीं है । बस, हम उनके हैं और वे हमारे हैं ।
वे ही हमारे माता, पिता, भाई, बन्धु, कुटुम्बी आदि सब कुछ हैं और वे ही हमारे धन,
सम्पत्ति, वैभव, जमीन, जायदाद आदि सब कुछ हैं‒
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव
सर्वं मम देवदेव ॥
कोई आपसे
पूछे कि तुम्हरी माँ कौन है ? ईश्वर ! तुम्हारा बाप कौन है ? ईश्वर ! भाई कौन है ?
ईश्वर ! तुम्हारा साथी कौन है ? ईश्वर ! तुम्हारा काम करनेवाला कौन है ? ईश्वर !
हमारे तो सब कुछ वही हैं । सब कुछ माँ ही है । जैसे बच्चेके लिये धोबी भी माँ है, नाई भी माँ है, दाई भी माँ है, धाई
भी माँ है, ईश्वर भी माँ है, गुरु भी माँ है, नौकर भी माँ है, महेतर भी माँ है,
आदि-आदि । छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा सब कुछ काम करनेवाली माँ है । ऐसे ही हमारे सब कुछ भगवान् ही हैं, तो हमें किस बातकी चिन्ता
! ‘चिन्ता दिन-दयालको मो मन सदा अनन्द ।’ हमारे मनमें तो सदा आनन्द-ही-आनन्द है, मौज-ही-मौज है ! हमारी
चिन्ता वे करें, न करें; हमें इस बातकी क्या परवाह है ! जैसे माँ बालककी
चिन्ता करे, न करे‒इससे बालकका क्या मतलब ! वह आप ही चिन्ता करती है बालककी;
क्योंकि बालक उसका अपना है । यह उसपर कोई अहसान
है कि वह बालकका पालन करे । अरे, यह तो उसका काम है । वह करे, न करे, इससे बालकको
क्या मतलब ? बालकको इन बातोंसे कुछ मतलब नहीं । ऐसे ही
भगवान् हमारी माँ है बस, वह हमारी माँ है और हमें न कुछ करना है, न जानना है, न
पढ़ना है; किन्तु हरदम मस्त रहना है, मस्तीसे खेलते रहना है । माँकी गोदीमें खेलता
रहे, हँसता रहे, खुश होता रहे । क्यों खुश होता रहे कि इससे माँ खुश होती है, राजी होती है अर्थात् हम
प्रसन्न रहें तो इससे माँ राजी होती है । माँकी राजीके लिये हम रहते हैं,
खेलते हैं, कूदते हैं और काम-धन्धा भी हम माँकी राजीके लिये ही करते हैं । और बातोंसे हमें कोई मतलब ही नहीं
है । हमें तो एक माँसे ही मतलब है ।
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