जैसे माँके पास जो कुछ होता है, वह सब बालकके
पालनके लिये ही होता है । माँका बल है, बुद्धि है, योग्यता है, विद्या है, शरीर है, कपड़े हैं, घर आदि
सब कुछ बच्चेके लिये ही होता है । ऐसे ही भगवान्के पास जो कुछ
सामर्थ्य है, शक्ति है, विलक्षणता है; वह सब केवल हमारे लिये ही है । अगर
हमारे लिये नहीं है तो किसके लिये है ? इस वास्ते हमें कभी किसी बातकी चिन्ता नहीं
करनी चाहिये । कभी चिन्ता आ भी जाय तो भगवान्से कह दो‒‘हे नाथ ! देखो, यह चिन्ता
आ गयी ।’ जैसे बालकको प्यास लगती है, वह ‘बू-बू’ करता है तो माँ पानी पीला देती है
। अब किसी भी कोशमें ‘बू’ नाम पानीका नहीं आया है, पर ‘बू’ कहते ही माँ पानी पिला
देती है । ऐसे ही हम किसी भी भाषामें कुछ भी कह दें तो उसको माँ (भगवान्) समझ
लेती है‒
गूँगा तेरी बातको और न
समझे कोय ।
कै समझै तेरी मावड़ी कै समझै तेरी जोय ॥
जैसे गूँगेकी भाषा उसकी माँ समझे या लुगाई (स्त्री) समझे ।
और कौन समझे उसकी भाषाको ? परन्तु हमारी भाषाको भगवान् समझें कि नहीं समझें, इससे
भी हमें मतलब नहीं रखना है । अपने तो माँ ! माँ ! करते
जाओ, बस । जैसे बालक माँको
किसी विधिसे थोड़े ही याद करता है । वह तो बस, माँ ! माँ ! करता रहता है ।
ऐसे ही माँ ! माँ ! करते रहो, बस; और हमें कुछ करना ही नहीं है । माँ प्रिय लगती
है, माँका नाम अच्छा लगता है । इस वास्ते प्यारसे कहो‒ माँ ! माँ !! माँ !!!
हमें एक सज्जन मिले थे । वे कहते थे कि ‘हम कभी माला फेरते
हैं तो क्या करते हैं कि जैसे जीमने (भोजन करने) में आनन्द आता है तो सबड़का लेते
हैं । ऐसे ही माला फेरते हैं तो सबड़का[1] लेते हैं । अब भजनकी क्या विधि है ! अपनेको सबड़का लेना है, बस । मौजसे नाम उच्चारण करे, कीर्तन करे
। कुछ भी करे तो मस्त होकर करे ।
‘क्या होगा ? कैसे होगा ?’‒इन बातोंसे अपना कोई मतलब ही
नहीं है । इन बातोंसे मतलब माँको है और इन बातोंकी माँको ही बड़ी चिन्ता होती है ।
जैसे माता यशोदा और माता कौसल्याको चिन्ता होती है कि मेरे लालाका ब्याह कब होगा ?
पर लाला तो समझता ही नहीं कि ब्याह क्या होता है, क्या नहीं होता है । वह तो अपनी
मस्तीमें खेलता ही रहता है । ऐसे ही हमारी माँको चिन्ता होती है कि बच्चेका कैसे होगा, क्या होगा ?’ पर हमें तो इससे कोई मतलब नहीं
है, और इसको जाननेकी जरूरत भी नहीं है । माँ जाने, माँका
काम जाने ! अपने तो आनन्द-ही-आनन्दमें रहना है और माँकी गोदीमें पड़े रहें । कैसी
मौजकी बात है । कितने आनन्दकी बात है ! ‘तू जाने
तेरा काम जाने’‒ऐसा कहकर निश्चिन्त हो जाओ,
निर्भय हो जाओ, निःशोक हो जाओ और निःशंक हो जाओ । हमें तो
आनन्द-ही-आनन्दमें रहना है, हरदम मस्तीमें रहना है । अपना
तो कुछ काम है ही नहीं, सिवाय मस्तीके, सिवाय आनन्दके ! हमारी जिम्मेवारी तो एक ही
है कि हरदम मस्त रहना, आनन्दमें रहना । माँ ! माँ ! नाम लेना अच्छा लगता है
। माँ ! माँ ! ऐसा कहना हमें प्यारा लगता है, इस वास्ते लेते हैं । राम ! राम !
नाम मीठा लगता है, इस वास्ते लेते हैं, इसमें
कोई विधि थोड़ी है कि इतना नाम लें । इतना-उतना क्या ! हम अपनी मर्जीसे
माँ-माँ करते रहें । किस तरह करना है ? कितना
करना है ? कैसे भजन किया ? कितना भजन किया ? इससे हमें क्या मतलब ? हमें माँका नाम प्यारा
लगता है, इस वास्ते खुशीसे, प्रसन्नतासे लेते हैं । बस, अपने तो मौज
हो रही है ! आनन्द हो रहा है ! खुशी आ रही है ! प्रसन्नता हो रही है !
मुख
राम कृष्ण राम कृष्ण कीजिये रे !
सीताराम ने भजन लावो लीजिये रे !!
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒ ‘जीवनका सत्य’ पुस्तकसे
[1] तरल पदार्थ-खीर,
कढ़ी, दाल आदिको चम्मचकी सहायता लिये बिना, केवल अँगुलियोंको एक साथ सटाकर उनसे
पीनेकी क्रियाको राजस्थानी भाषामें ‘सबोड़ना’ कहते हैं ।
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