।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७६ मंगलवार
             कल्याण सहज है


अगर अपना कल्याण करना हो तो जितना हम जानते हैं, उससे अधिक जाननेकी जरूरत नहीं है और जितना हमें मिला है, उससे अधिक वस्तुकी जरूरत नहीं है । अगर आफत करनी हो, भोगोंमें फँसना हो, जन्म-मरणमें जाना हो, तब तो अधिक वस्तुओंकी जरूरत है । अगर अपना कल्याण चाहते हैं तो जितनी वस्तु मिली है, उतनी ही जरूरत है; और जितनी जरूरत है, उतनी ही वस्तु मिली है । अपने कल्याणके लिये जानकारी भी पूरी है, कम नहीं है । अतः न तो जानकारी बढ़ानेकी जरूरत है और न वस्तुओंका संग्रह बढ़ानेकी जरूरत है । जितना आपको मिला है, उसीमें आप अपना कल्याण कर सकते हैं‒इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है ।

यह शरीर, संसार पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा तथा उसके साथ हमारा सम्बन्ध भी पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा‒यह सब जानते हैं । अतः शरीर-संसारका भरोसा नहीं रखना है, इनका आश्रय नहीं लेना है । ऐसे ही हमारे पास जितनी वस्तुएँ हैं, उन्हींका सदुपयोग करना है, उन्हींके द्वारा सबका हित करना है । अतः ज्यादा जाननेकी, ज्यादा वस्तुओंकी जरूरत ही नहीं है । कारण यह है कि भगवान्‌के विधानमें कमी नहीं है । भगवान्‌ मात्र जीवोंके सुहृद् हैं । उन्होंने जीवोंके कल्याणके लिये मनुष्य-शरीर दिया तो उसमें अपने कल्याणके ज्ञानकी कमी नहीं रखी, योग्यताकी कमी नहीं रखी । अगर इनकी कमी रखते तो ‘मनुष्य-शरीर कल्याणके लिये दिया है’‒यह कहना नहीं बनता ।

ज्ञानकी दृष्टिसे देखा जाय तो हमारा सम्बन्ध किसी वस्तुके साथ है ही नहीं‒यह ज्ञान सबमें है । जब सम्बन्ध है ही नहीं तो वस्तु कम और ज्यादा होनेसे क्या ? जितनी भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुएँ हैं, उनके साथ हमारा सम्बन्ध कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता ही नहीं‒ऐसा ठीक अनुभव हो जाय तो कल्याण हो जायगा, तत्त्वज्ञान हो जायगा ।


इस प्रकार भक्तियोगकी दृष्टिसे परम सुहृद् भगवान्‌का विधान होनेसे कमी नहीं है; कर्मयोगकी दृष्टिसे जो मिला हुआ है, पूरा-का-पूरा मिला हुआ है; और ज्ञानयोगकी दृष्टिसे क्रिया एवं पदार्थके साथ हमारा सम्बन्ध ही नहीं है । अतः नया जाननेकी, नया संग्रह करनेकी आवश्यकता नहीं है । अपने कल्याणके लिये हमारे पास पूरी सामग्री है, पूरा समय है । समयके लिये तो मैं कहता हूँ कि मनुष्य-जन्ममें समय इतना ज्यादा है कि उसके थोड़े-से हिस्सेसे कल्याण हो जाय । परमात्मप्राप्तिका काम तो कम है और समय बहुत ज्यादा है । यद्यपि एक बार कल्याण होनेपर फिर दुबारा कल्याण करना नहीं पड़ता, तथापि अगर करना पड़े तो पाँच, सात, दस बार कल्याण कर ले‒इतना समय मनुष्यके पास है । सामग्री भी ज्यादा है । जितनी सामग्री है, उतनी काम आयेगी नहीं, उसको छोड़कर मरना पड़ेगा । कोई भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु अपनी थी नहीं, है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं‒यह बोध भी अपनेको है ।