अगर अपना कल्याण
करना हो तो जितना हम जानते हैं, उससे अधिक जाननेकी जरूरत नहीं है और जितना हमें
मिला है, उससे अधिक वस्तुकी जरूरत नहीं है । अगर आफत करनी हो, भोगोंमें फँसना हो, जन्म-मरणमें
जाना हो, तब तो अधिक वस्तुओंकी जरूरत है । अगर
अपना कल्याण चाहते हैं तो जितनी वस्तु मिली है, उतनी ही जरूरत है; और जितनी जरूरत है, उतनी ही वस्तु मिली है । अपने
कल्याणके लिये जानकारी भी पूरी है, कम नहीं है । अतः न तो जानकारी बढ़ानेकी
जरूरत है और न वस्तुओंका संग्रह बढ़ानेकी जरूरत है । जितना आपको मिला है, उसीमें आप
अपना कल्याण कर सकते हैं‒इसमें किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं है ।
यह शरीर, संसार
पहले नहीं था और पीछे नहीं रहेगा तथा उसके साथ हमारा सम्बन्ध भी पहले नहीं था और
पीछे नहीं रहेगा‒यह सब जानते हैं । अतः शरीर-संसारका भरोसा नहीं रखना है, इनका आश्रय नहीं लेना
है । ऐसे ही हमारे पास जितनी वस्तुएँ हैं, उन्हींका सदुपयोग करना है, उन्हींके
द्वारा सबका हित करना है । अतः ज्यादा जाननेकी, ज्यादा वस्तुओंकी जरूरत ही नहीं है
। कारण यह है कि भगवान्के
विधानमें कमी नहीं है । भगवान् मात्र जीवोंके सुहृद् हैं । उन्होंने जीवोंके
कल्याणके लिये मनुष्य-शरीर दिया तो उसमें अपने कल्याणके ज्ञानकी कमी नहीं रखी,
योग्यताकी कमी नहीं रखी । अगर इनकी कमी रखते तो ‘मनुष्य-शरीर कल्याणके लिये दिया है’‒यह कहना नहीं
बनता ।
ज्ञानकी दृष्टिसे
देखा जाय तो हमारा सम्बन्ध किसी वस्तुके साथ है ही नहीं‒यह ज्ञान सबमें है । जब
सम्बन्ध है ही नहीं तो वस्तु कम और ज्यादा होनेसे क्या ? जितनी
भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुएँ हैं, उनके साथ हमारा सम्बन्ध कभी हुआ नहीं, है नहीं,
होगा नहीं और हो सकता ही नहीं‒ऐसा ठीक अनुभव हो जाय तो कल्याण हो जायगा,
तत्त्वज्ञान हो जायगा ।
इस प्रकार
भक्तियोगकी दृष्टिसे परम सुहृद् भगवान्का विधान होनेसे कमी नहीं है; कर्मयोगकी
दृष्टिसे जो मिला हुआ है, पूरा-का-पूरा मिला हुआ है; और ज्ञानयोगकी दृष्टिसे
क्रिया एवं पदार्थके साथ हमारा सम्बन्ध ही नहीं है । अतः नया जाननेकी, नया संग्रह
करनेकी आवश्यकता नहीं है । अपने कल्याणके लिये हमारे पास
पूरी सामग्री है, पूरा समय है । समयके लिये तो मैं कहता हूँ कि मनुष्य-जन्ममें समय
इतना ज्यादा है कि उसके थोड़े-से हिस्सेसे कल्याण हो जाय । परमात्मप्राप्तिका
काम तो कम है और समय बहुत ज्यादा है । यद्यपि एक बार कल्याण होनेपर फिर दुबारा
कल्याण करना नहीं पड़ता, तथापि अगर करना पड़े तो पाँच, सात, दस बार कल्याण कर
ले‒इतना समय मनुष्यके पास है । सामग्री भी ज्यादा है । जितनी सामग्री है, उतनी काम आयेगी नहीं,
उसको छोड़कर मरना पड़ेगा । कोई भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु अपनी थी नहीं, है
नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं‒यह बोध भी अपनेको है ।
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