।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
    माघ शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७६ गुरुवार
            भक्तिकी सुलभता


भगवद्वचनामृतस्वरूप परम गोपनीय एवं रहस्यपूर्ण ग्रन्थ श्रीमद्भगवद्गीताके आठवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनद्वारा किये हुए सात प्रश्नोंमेंसे अन्तिम प्रश्न यह है कि ‘हे भगवन्‌ ! आप अन्त समयमें जाननेमें कैसे आते हैं ?’ अर्थात्‌ मृत्यकालमें आप प्राणियोंद्वारा कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं ? इसका उत्तर देते हुए इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा गया है कि ‘अन्तकालमें भी जो मेरा ही स्मरण करता हुआ शरीर छोड़कर जाता है, वह निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होता है । अतः हे अर्जुन ! तू सभी समयोंमें मेरा ही स्मरण कर तथा युद्ध (कर्तव्य-कर्म) भी कर । इस प्रकार मुझमें मन-बुद्धिको लगाये हुए तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा (गीता ८/७) ।’ ऐसे ही सगुण-निराकार परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके विषयमें भगवान्‌ कहते हैं‒

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥
                                        (गीता ८/८)

अर्थात्‌ हे पृथानन्दन ! यह नियम है कि परमेश्वरके ध्यानके अभ्यासरूप योगासे युक्त, अन्य ओर न जानेवाले चित्तसे निरन्तर चिन्तन करता हुआ प्राणी परमप्रकाशस्वरूप दिव्य पुरुषको अर्थात्‌ परमेश्वरको ही प्राप्त होता है । फिर आगेके श्लोकमें भगवान्‌ कहते हैं‒

कविं        पुराणमनुशासितार-
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः      ।
सर्वस्य     धातारमचिन्त्यरूप-
मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥
                          (गीता ८/९)

अर्थात्‌ जो पुरुष सर्वज्ञ, अनादि, सबके नियामक, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, सबके धारण-पोषण करनेवाले, अचिन्त्य-स्वरूप, सूर्यके सदृश्य नित्य चेतन, प्रकाशस्वरूप एवं अविद्यासे अति परे शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमात्माको स्मरण करता है, वह परम पुरुष परमात्माको ही प्राप्त होता है ।

इसी अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें निर्गुण-निराकार परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके विषयमें उस परब्रह्मकी प्रशंसा तथा बतलानेकी प्रतिज्ञा करके बारहवें श्लोकमें उस परमात्माकी प्राप्तिकी विधि बतलाते हुए आगेके श्लोकमें कहते हैं‒

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म    व्याहरन् मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम् ॥
                                            (गीता ८/१३)

अर्थात्‌ जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षररूप ब्रह्मका उच्चारण करता हुआ और (उसके अर्थस्वरूप) मेरा चिन्तन करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गतिको प्राप्त होता है ।

इसी प्रकार भगवान्‌ने सगुण-स्वरूप तथा निर्गुण-स्वरूप परमात्माकी प्राप्तिके उपाय बतलाये, परन्तु दोनों साधनोंमें योगके अभ्यासकी अपेक्षा होनेके कारण साधनमें कठिनता है, अतः अब आगे अपनी प्राप्तिकी सुलभता बताते हुए भगवान्‌ अपने प्रिय सखा कुन्तीनन्दन अर्जुनके प्रति कहते हैं‒

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
                                              (गीता ८/१४)


‘हे पृथापुत्र अर्जुन ! जो मनुष्य नित्य-निरन्तर अनन्य चित्तसे मुझ परमेश्वरका स्मरण करता है, उस निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ‒वह सुगमतापूर्वक मुझे पा सकता है ।’