।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
    माघ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७६ शुक्रवार
            भक्तिकी सुलभता


अब आप देखेंगे कि गीताभरमें ‘सुलभ’ पद केवल इसी स्थानपर इसी श्लोकमें आया है । इस सौलभ्यका एकमात्र कारण अनन्य भावसे नित्य-निरन्तर भगवान्‌का स्मरण ही है । आप कह सकते हैं कि जो प्रभु अपने स्मरणमात्रसे इतने सुलभ हैं, उनका स्मरण बिना उनके स्वरूप-ज्ञानके क्योंकर किया जा सकता है । इसका उत्तर यह है कि आजतक आपने भगवत्स्वरूपके सम्बन्धमें जैसा कुछ शास्त्रोंमें पढ़ा, सुना और समझा है, तदनुरूप ही उस भगवत्स्वरूपमें अटल श्रद्धा रखते हुए भगवान्‌के शरण होकर उनके महिमाशाली परमपावन नामके जपमें तथा उनके मंगलमय दिव्य स्वरूपके चिन्तनमें आपको तत्परतापूर्वक लग जाना चाहिये  और यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि उनके स्वरूपविषयक हमारी जानकारीमें जो कुछ भी त्रुटि है, उसे वे करुणामय परमहितैषी प्रभु अवश्य ही अपना सम्यग्ज्ञान देकर पूर्ण कर देंगे, जैसा कि भगवान्‌ने स्वयं गीताजीमें कहा है‒
                     
                     तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं           तमः ।
                     नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
                             (१०/११)

‘हे पृथापुत्र ! उनके ऊपर अनुकम्पा करनेके लिये उनके अन्तःकरणमें स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकारको प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ ।’

इस प्रकार प्रेमपूर्वक भगवान्‌का भजन करनेसे वे परमप्रभु हमारे योग-क्षेम अर्थात्‌ अप्राप्तकी प्राप्ति तथा प्राप्तकी रक्षा स्वयं करते हैं ।

भजन उसीको कहते हैं, जिसमें भगवान्‌का सेवन हो तथा सेवन भी वही श्रेष्ठ है, जो प्रेमपूर्वक मनसे किया जाय । मनसे प्रभुका सेवन तभी समुचितरूपसे प्रेमपूर्वक होना सम्भव है, जब हमारा उनके साथ घनिष्ठ अपनापन हो और प्रभुसे हमारा अपनापन तभी हो सकता है, जब संसारके अन्य पदार्थोंसे हमारा सम्बन्ध और अपनापन न हो ।

वास्तवमें विचार करके देखें तो यहाँ प्रभुके सिवा अन्य कोई अपना है भी नहीं; क्योंकि प्रभुके अतिरिक्त अन्य जितनी भी प्राकृत वस्तुएँ हमारे देखने, सुनने एवं समझनेमें आती हैं, वे सभी निरन्तर हमारा परित्याग करती जा रही हैं अर्थात्‌ नष्ट होती जा रही हैं ।

इसलिये सन्त कबीरजी महाराज कहते हैं‒

                      दिन दिन छाँड्या जात है, तासों किसा सनेह ।
                      कह कबीर डहक्या    बहुत गुणमय गंदी देह ॥
        

अतः अन्य किसीको भी अपना न समझकर केवल प्रभुका प्रेमपूर्वक  अनन्य भावसे स्मरण करना ही उनकी प्राप्तिका महत्त्वपूर्ण तथा सुलभ साधन है ।