।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
    माघ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७६ शनिवार
            भक्तिकी सुलभता


अनन्य भावको प्राप्त करनेके लिये यह समझनेकी परम आवश्यकता है कि यह जीवात्मा परमात्मा और प्रकृतिके मध्यमें है और जबतक इसकी उन्मुखता प्रकृतिके कार्यस्वरूप बुद्धि, मन, इन्द्रिय, प्राण, शरीर तथा तत्सम्बन्धी धन, जन आदिकी ओर रहती है, तबतक यह प्राणी अन्यका आश्रय छोड़कर केवल परमात्माका आश्रय नहीं ले सकता । अतः मेरा कोई नहीं है तथा मैं सेवा करनेके लिये समस्त संसारका होते हुए भी वास्तवमें एक परमात्माके सिवा अन्य किसीका नहीं हूँ‒इस प्रकारका दृढ़ निश्चय ही प्राणीको अनन्यचित्तवाला बनानेमें परम समर्थ है । इस प्रकार ‘चेतसा नान्यगामिना’ (८/८); ‘अनन्येनैव योगेन’ (१२/६), ‘मां च योऽव्यभिचारेण’ (१४/२६); ‘अनन्याश्चिन्तयतो माम्’ (९/२२),  ‘मच्चित्ताः’ (१०/९), ‘मन्मना भव’ (९/३४); (१८/६५); ‘मच्चित्तः सततं भव’ (१८/५७); ‘म्क़च्चित्तः सर्वदुर्गाणि’ (१८/५८), ‘मय्येव मन आधत्स्व’ (१२/८) तथा ‘मय्यर्पितमनोबुद्धिः’ (८/७)‒आदि-आदि महत्त्वपूर्ण वाक्योंद्वारा परमात्माकी प्राप्तिरूप फल बतलाकर अनन्यभावसे भगवान्‌के चिन्तन-भजनकी अत्यधिक महिमा गायी गयी है, अस्तु जिसकी धारणामें श्रीभगवान्‌के सिवा अन्य किसीके प्रति महत्त्वबुद्धि नहीं है, वही अनन्यचित्तवाला अर्थात्‌ अनन्यभावसे स्मरण करनेवाला है । अब रहा ‘सततम्’ पद, सो निरन्तर चिन्तन तो प्रभुके साथ अखण्ड नित्य सम्बन्धका ज्ञान होनेसे ही हो सकता है ।

इसपर श्रीकबीरदासजीकी निम्नांकित उक्तिपर ध्यान दें । वे कहते हैं‒

जहँ जहँ चालूँ करूँ परिक्रमा, जो कछु करूँ सो पूजा ।
जब सोऊँ तब करूँ दण्डवत,        जानूँ देव न दूजा ॥

इस प्रकार उस नित्ययुक्त योगीके लिये भगवान्‌ स्वतः ही सुलभ हैं । दुर्लभता तो हमने भगवान्‌के अतिरिक्त अन्य सदा न रहनेवाली अस्थायी वस्तुओंसे सम्बन्ध जोड़कर पैदा कर ली है । इसके दूर होते ही भगवान्‌के साथ तो हमारा नित्य-निरन्तर अखण्ड सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है ही; अतः हमें अपना सम्बन्ध अन्य किसीसे न जोड़कर एकमात्र अपने उन परमहितैषी प्रभुके साथ ही जोड़ना चाहिये, जो प्राणिमात्रके परम सुहृद् एवं अकारण कारुणिक हैं तथा उन्हींसे ममता करनी चाहिये । फिर तो वे दयामय श्रीहरि हमें आप ही अपना लेंगे, जैसा कि उन्होंने अपने परम प्रिय सखा अर्जुनको अपनाते हुए कहा था‒

सर्वधर्मान्परित्यज्य       मामेकं   शरणं   व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
                                                      (१८/६६)

‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात्‌ सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मोंको मुझमें त्यागकर तू एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वरकी ही शरणमें आ जा; मैं तुजे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर ।’

यह नियम है कि स्वरचित वस्तु चाहे कैसी ही क्यों न हो, हमको प्रिय लगती ही है । ऐसे ही यह सम्पूर्ण विश्व प्रभुका रचा हुआ तथा अपना होनेके नाते स्वाभाविक ही उन्हें प्रिय है ही । यथा‒

  अखिल बिस्व यह मोर उपाया । सब पर मोहि बराबरि दाया ॥

फिर उसके लिये तो कहना ही क्या है, जो सब ओरसे मुख मोड़कर एकमात्र उन प्रभुका हो जाता है । वह तो उन्हें परम प्रिय है ही । यथा‒

तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया । भजै मोहि मन बच अरु काया  ॥
पुरुष  नपुंसक  नारि   वा   जीव  चराचर  कोइ ।
सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ ॥

इसी प्रकार मानसमें सुतीक्ष्णजी भी कहते हैं‒

    एक बानि करुनानिधान की । सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥

अतः जिसको स्वयं भगवान्‌ अपनी ओरसे प्रिय मानें, उसे भगवान्‌ सुलभ हो जायँ‒ इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता; जैसा कि श्री भगवान्‌ने स्वयं अपने श्रीमुखसे अर्जुनके प्रति कहा है‒

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव   योगेन   मां  ध्यायन्तः उपासते ॥
तेषामहं     समुद्धर्ता     मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात् पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥
                                              (गीता १२/६-७)
        
‘जो मेरे ही परायण रहनेवाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें अर्पण करके मुझ सगुणरूप परमेश्वरको ही अनन्य भक्तियोगसे निरन्तर चिन्तन करते हुए भजन हैं, हे पार्थ ! उन मुझमें चित्त लगानेवाले प्रेमी भक्तोंका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला होता हूँ ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


‒ ‘एकै साधे सब सधै’ पुस्तकसे