जिसको हम प्राप्त
करना चाहते हैं, वह परमात्मतत्त्व एक जगह सीमित नहीं है, किसीके कब्जेमें नहीं है,
अगर है तो वह हमें क्या निहाल करेगा ? परमात्मतत्त्व तो प्राणिमात्रको नित्य
प्राप्त है । जो उस परमात्मातत्त्वको जाननेवाले महात्मा
हैं, वे न गुरु बनाते हैं, न कोई फीस (भेंट) लेते हैं, प्रत्युत सबको चौड़े बताते
हैं । जो गुरु नहीं बनते, वे जैसी तत्त्वकी बात बता सकते हैं, वैसी तत्त्वकी बात
गुरु बनानेवाले नहीं बता सकते ।
सौदा करनेवाले व्यक्ति गुरु नहीं होते । जो कहते हैं कि पहले
हमारे शिष्य बनो, फिर हम भगवत्प्राप्तिका रास्ता बतायेंगे, वे मानो भगवान्की
बिक्री करते हैं । यह सिद्धान्त है कि कोई वस्तु जितने मूल्यमें मिलती है, वह
वास्तवमें उससे कम मूल्यकी होती है । जैसे कोई घड़ी सौ रुपयोंमें मिलती है तो उसको
लेनेमें दूकानदारके सौ रुपये नहीं लगे हैं । अगर गुरु बनानेसे ही कोई चीज मिलेगी
तो वह गुरुसे कम दामवाली अर्थात् गुरुसे कमजोर ही होगी । फिर उससे हमें भगवान्
कैसे मिल जायँगे ? भगवान् अमूल्य हैं । अमूल्य वस्तु
बिना मूल्यके मिलती है और जो वस्तु मूल्यसे मिलती है, वह मूल्यसे कमजोर होती है । इसलिये
कोई कहे के मेरा
चेला बनो तो मैं बात बताऊँगा, वहाँ हाथ जोड़ देना चाहिये ! समझ लेना चाहिये कि कोई
कालनेमि है ! नकली गुरु बने हुए कालनेमि राक्षसने हनुमान्जीसे कहा था‒
सर मज्जन करि
आतुर आवहु ।
दिच्छा देऊ ग्यान
जेहिं पावहु ॥
(मानस,
लंकाकाण्ड ५७/४)
उसकी पोल खुलनेपर
हनुमान्जीने कहा कि पहले गुरुदक्षिणा ले लो, पीछे मन्त्र देना और पूँछमें सिर
लपेटकर उसको पछाड़ दिया !
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे
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