अगर आप अपना उद्धार चाहते हैं तो उसमें बाधा कौन दे सकता है
? और अगर आप अपना उद्धार नहीं चाहते तो आपका उद्धार कौन कर सकता है ? कितने ही अच्छे गुरु हों, सन्त हों, पर आपकी इच्छाके बिना कोई
आपका उद्धार नहीं कर सकता । अगर आप अपने उद्धारके लिये तैयार हो जाओ तो
सन्त-महात्मा ही नहीं, चोर-डाकू भी आपकी सहायता करेंगे, दुष्ट भी आपकी सेवा
करेंगे, सिंह, सर्प आदि भी आपकी सेवा करेंगे ! इतना ही नहीं, दुनियामात्र भी आपकी
सेवा करनेवाली हो जायगी । मैंने ऐसा कई बार देखा है कि अगर सच्चे हृदयसे भगवान्में लगे हुए व्यक्तिको कोई दुःख देता
है तो वह दुःख भी उसकी उन्नतिमें सहायक हो जाता है ! दूसरा तो उसको दुःख देनेकी नियतसे काम करता है, पर उसका भला हो जाता है
! इतना ही नहीं, जो भगवान्को नहीं मानता, उसमें भी अगर अपने
कल्याणकी लगन पैदा हो जाय तो उसका भी कल्याण हो जाता है ।
धनी आदमी काम करनेके लिये नौकर रख लेते हैं, पूजन करनेके
लिये ब्राह्मण रख लेते हैं, पर भोजन करने अथवा
दवा लेनेके लिये कोई नौकर या ब्राह्मण नहीं रखता । भूख लगनेपर भोजन खुदको
ही करना पड़ता है । रोगी होनेपर दवा खुदको ही लेनी पड़ती है । जब रोटी भी खुद खानेसे
भूख मिटती है, दवा भी खुद लेनेसे रोग मिटता है, तो फिर कल्याण अपनी लगनके बिना
कैसे हो जायगा ? आप तत्परतासे भगवान्में लग जाओ तो गुरु, सन्त, भगवान्‒सब आपकी
सहायता करनेके लिये तैयार हैं, पर कल्याण तो खुदको ही करना पड़ेगा । इसलिये गुरु हमारा कल्याण कर देगा‒यह पूरी ठगाई है !
माँ कितनी ही दयालु क्यों न हो, पर आपकी भूख नहीं हो तो
भोजन कैसे करायेगी ? ऐसे ही आपमें अपने कल्याणकी
उत्कण्ठा न हो तो भगवान् परम दयालु होते हुए भी क्या करेंगे ? चीर-हरणके
समय द्रौपदीने भगवान्को पुकारा तो वे वस्त्ररूपसे प्रकट हो गये, पर जुएमें हारते
समय युधिष्ठिरने भगवान्को पुकारा ही नहीं तो वे कैसे आयें ? युधिष्ठिरने तेरह
वर्षोंतक वनमें दुःख पाया । कुन्ती माताने
भगवान् श्रीकृष्णसे कहा कि ‘कन्हैया ! क्या तेरेको पाण्डवोंपर दया नहीं
आती ?’ भगवान्ने कहा कि ‘मैं क्या करूँ, युधिष्ठिरने जुएमें राज्य, धन-सम्पत्ति
आदि सब कुछ लगा दिया, पर मेरेको याद ही नहीं किया !’
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तकसे
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