।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७७ मंगलवार
भगवान्‌ शंकर



‘शंकर’ का अर्थ है–कल्याण करनेवाला । अतः भगवान्‌ शंकरका काम केवल दूसरोंका कल्याण करना है । जैसे संसारमें लोग अन्नक्षेत्र खोलते हैं, ऐसे ही भगवान्‌ शंकरने काशीमें मुक्तिका क्षेत्र खोल रखा है । गोस्वामीजी महाराज कहते हैं–

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर ।
जहँ बस संभु भवानि  सो  कासी  सेइअ  कास  न ॥
                                                   (मानस ४/१ सो)

शास्त्रोंमें भी आता है–‘काशीमरणान्मुक्तिः’ । काशीको ‘वाराणसी’ भी कहते हैं । ‘वरुणा’ और ‘असी’–दोनों नदियाँ गंगाजीमें आकर मिलती हैं, उनके बीचका क्षेत्र ‘वाराणसी’ कहलाता है । इस क्षेत्रमें मरनेवालेकी मुक्ति हो जाती है ।

यहाँ शंका होती है कि काशीमें मरनेवालेके पापोंका क्या होता है ? इसका समाधान है कि काशीमें मरनेवाले पापीको पहले ‘भैरवी यातना’ भुगतनी पड़ती है, फिर उसकी मुक्ति हो जाती है । भैरवी यातना बड़ी कठोर यातना है, जो थोड़े समयमें सब पापोंका नाश कर देती है । काशी केदारखण्डमें मरनेवालेको तो भैरवी यातना भी नहीं भोगनी पड़ती !

सालगरामजीने कहा है–

     जगमें जिते जड़ जीव जाकी अन्त समय,
                     जम के जबर जोधा खबर लिये करे ।
     काशीपति विश्वनाथ वाराणसी वासिन की,
                     फाँसी यम नाशनको शासन दिये करे ॥
      मेरी प्रजा ह्वै के किम पेहैं काल दण्डत्रास,
                    सालग, यही विचार हमेश हिये करे ।
       तारक की भनक पिनाकी यातें प्रानिन के,
                    प्रान के पयान समय कान में किये करे ॥

काशीमें मरनेवालोंके दायें कानमें भगवान्‌ शंकर तारक मन्त्र–‘राम’ नाम सुनाते हैं, जिसको सुननेसे उनकी मुक्ति हो जाती है । अध्यात्मरामायणमें शंकरजी कहते हैं–

अहं भवन्नाम गृणन्कृतार्थो वसामि काश्यामनिशं भवान्या ।
         मुमूर्षमाणस्य विमुक्तयेऽहं  दिशामि  मन्त्रं  तव राम नाम ॥
                                                      (युद्ध. १५/६२)

‘हे प्रभो ! आपके नामोच्‍चारणसे कृतार्थ होकर मैं दिन-रात पार्वतीके साथ काशीमें रहता हूँ और वहाँ मरणासन्न मनुष्योंको उनके मोक्षके लिये आपके तारक-मन्त्र राम-नामका उपदेश देता हूँ ।’

गोस्वामीजी कहते हैं–

महामंत्र जोइ जपत महेसू । कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ॥
                                                  (मानस १/१९/२)


भगवान्‌ शंकरका राम-नामपर बहुत स्नेह है । एक बार कुछ लोग एक मुरदेको श्मशानमें ले जा रहे थे और ‘राम-नाम सत् है’ ऐसा बोल रहे थे । शंकरजीने राम-नाम सुना तो वे भी उनके साथ हो गये । जैसे पैसोंकी बात सुनकर लोभी आदमी उधर खिंच जाता है, ऐसे ही राम-नाम सुनकर शंकराजीका मन भी उन लोगोंकी ओर खिंच गया । अब लोगोंने मुरदेको श्मशानमें ले जाकर जला दिया और वहाँसे लौटने लगे । शंकरजीने देखा तो विचार किया कि बात क्या है ? अब कोई आदमी राम-नाम ले ही नहीं रहा है ! उनके मनमें आया कि उस मुरदेमें ही कोई करामात थी, जिसके कारण ये सब लोग राम-नाम ले रहे थे । अतः उसीके पास जाना चाहिये । शंकरजीने श्मशानमें जाकर देखा कि वह तो जलकर राख हो गया है । अतः शंकरजीने उस मुरदेकी राख अपने शरीरमें लगा ली और वहीं रहने लगे ! राख और सान–दोनोंके पहले अक्षर लेनेसे ‘राम’ हो जाता है !