एक कविने कहा है–
रुचिर रकार बिन तज दी सती-सी नार,
कीनी नाहिं रति रूद्र पायके कलेश को ।
गिरिजा भई है पुनि तप ते अर्पणा तबे,
कीनी अर्धंगा प्यारी लागी गिरिजेश को ॥
विष्नुपदी गंगा तउ धूर्जटी धरि न सीस,
भागीरथी भई तब धारी
है अशेष को ।
बार-बार करत रकार व मकार ध्वनि,
पुरण है
प्यार राम-नाम पे महेश को ॥
सतीके नाममें ‘र’ कार अथवा ‘म’ कार नहीं हैं, इसलिये शंकरजीने सतीका त्याग कर दिया ।
जब सतीने हिमाचलके यहाँ जन्म लिया, तब उनका नाम ‘गिरिजा’
(पार्वती) हो गया । इतनेपर भी शंकरजी मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं–ऐसा सोचकर पार्वतीजी तपस्या करने लगीं । जब उन्होंने
सूखे पत्ते खाना छोड़ दिया; तब उनका नाम ‘अर्पणा’
हो गया । गिरिजा और अर्पणा–दोनों नामोंमें ‘र’ कार आ गया तो शंकरजी इतने प्रसन्न
हुए कि उन्होंने पार्वतीजीको अपनी अर्धांगिनी बना लिया । इसी तरह शंकरजीने गंगाको
स्वीकार नहीं किया । परन्तु जब गंगाका नाम ‘भागीरथी’
पड़ गया, तब शंकरजीने उनको अपनी जटामें धारण कर लिया । अतः भगवान् शंकरका
राम-नाममें विशेष प्रेम है । वे रात-दिन राम-नामका जप करते रहते हैं–
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती ।
सादर जपहु अनँग आराती ॥
(मानस १/१०८/४)
केवल दुनियाके कल्याणके लिये ही वे राम-नामका जप
करते हैं, अपने लिये नहीं ।
शंकरके हृदयमें विष्णुका और विष्णुके हृदयमें शंकरका बहुत
अधिक स्नेह है । शिव
तामसमूर्ति हैं और विष्णु सत्त्वमूर्ति है, पर एक-दूसरेका ध्यान करनेसे शिव श्वेतवर्णके
और विष्णु श्यामवर्णके हो गये । वैष्णवोंका तिलक (उर्ध्वपुण्ड्र) त्रिशूलका रूप है
और शैवोंका तिलक (त्रिपुण्ड्र) धनुषका रूप है । अतः शिव और विष्णुमें भेदबुद्धि
नहीं होनी चाहिये–
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास ।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ॥
(मानस ६/२)
उभयोः प्रकृतिस्त्वेका प्रत्ययभेदेन भिन्नवद् भाति ।
कलयति
कश्चिनमूढा हरिहरभेदं विनाशास्त्रम् ॥
अर्थात् (१) हरि और हर–दोनोंकी
प्रकृति (वास्तविक तत्त्व) एक ही है, पर निश्चयके भेदसे दोनों भिन्नकी तरह दीखते
हैं । कुछ मूर्खलोग हरि और हरको भिन्न-भिन्न बताते हैं, जो विनाश करनेका अस्त्र
(विनाश-अस्त्रम्) है ।
(२) हरि और हर–दोनोंकी
प्रकृति एक ही है अर्थात् दोनों एक ही ‘हृ’ धातुसे बने हैं, पर प्रत्यय (‘इ’ और
‘अ’) के भेदसे दोनों भिन्नकी तरह दीखते हैं । कुछ मूर्खलोग हरि और हरको
भिन्न-भिन्न बताते हैं, जो शास्त्रसे विरुद्ध (विना-शास्त्रम्) है ।
अतः शिव और विष्णुमें कभी भेदबुद्धि
नहीं करनी चाहिये–
शिवश्च हृदये विष्णोः विष्णोश्च हृदये शिवः ।
|