।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख अमावस्या, वि.सं.२०७७ गुरुवार
वृद्धि-तिथि

भगवान्‌ शंकर



कहीं-कहीं ऐसा भी आता है कि वैष्णव शिवलिंगको नमस्कार न करे । परन्तु इसका मतलब ऐसा नहीं कि वैष्णवका शंकरसे द्वेष है । इसका तात्पर्य यह है कि वैष्णवोंके मस्तकपर उर्ध्वपुण्ड्रका जो तिलक रहता है, उसमें विष्णुके दो चरणोंके बीचमें लक्ष्मीजीका लाल रंगका चिह्न (श्री) रहता है । लक्ष्मीजीको शिवलिंगके पास जानेमें लज्जा आती है । अतः वैष्णवोंके लिये शिवलिंगको नमस्कार करनेका निषेध आया है ।

गोस्वामीजी महाराजने कहा है–

‘सेवक स्वामी सखा सिय पी के ।’
                                        (मानस १/१५/२)

अर्थात् भगवान्‌ शंकर रामजीके सेवक, स्वामी और सखा–तीनों ही हैं । रामजीकी सेवा करनेके लिये शंकरने हनुमान्‌जीका रूप धारण किया । वानरका रूप उन्होंने इसलिये धारण किया कि अपने स्वामीकी सेवा तो करूँ, पर उनसे चाहूँ कुछ भी नहीं, क्योंकि वानरको न रोटी चाहिये, न कपड़ा चाहिये और न मकान चाहिये । वह जो कुछ भी मिले, उसीसे अपना निर्वाह कर लेता है । रामजीने पहले रामेश्वर शिवलिंगका पूजन किया, फिर लंकापर चढ़ाई की । अतः भगवान्‌ शंकर रामजीके स्वामी भी हैं । रामजी कहते हैं–

संकर प्रिय मम द्रोही  सिव  द्रोही  मम  दास ।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महूँ बास ॥

अतः भगवान्‌ शंकर रामजीके सखा भी हैं ।

भगवान्‌ शंकर आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होनेवाले) हैं । वे थोड़ी-सी उपासना करनेसे ही प्रसन्न हो जाते हैं । इस विषयमें अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं । एक बधिक था । एक दिन उसको खानेके लिये कुछ नहीं मिला । संयोगसे उस दिन शिवरात्रि थी । रात्रिके समय उसने वनमें एक शिवमंदिर देखा । वह भीतर गया । उसने देखा कि शिवलिंगके ऊपर स्वर्णका छत्र टँगा हुआ है । अतः उस छत्रको उतारने लिये जूतीसहित शिवलिंगपर चढ़ गया । इसने अपने-आपको मेरे अर्पण कर दिया–ऐसा मानकर भगवान्‌ शंकर उसके सामने प्रकट हो गये ।

एक कुतिया खरगोशको मारनेके लिये उसके पीछे भागी । खरगोश भागता-भागता एक शिवमंदिरके भीतर घुस गया । वहाँ वह शिवलिंगकी परिक्रमामें भागा तो आधी परिक्रमामें ही कुतियाने खरगोशको पकड़ लिया । शिवलिंगकी आधी परिक्रमा हो जानेसे उस खरगोशकी मुक्ति हो गयी ।

भगवान्‌ शंकर बहुत सीधे-सरल हैं । भस्मासुरने उनसे यह वरदान माँगा कि मैं जिसके सिरपर हाथ रखूँ, वह भस्म हो जाय तो शंकरजीने उसको वरदान दे दिया । अब पार्वतीजीको पानेकी इच्छासे वह उलटे शंकरजीके सिरपर हाथ रखनेके लिये भागा । तब भगवान्‌ विष्णु उन दोनोंके बीचमें आ गये और भस्मासुरको रोककर बोले कि कम-से-कम पहले परीक्षा करके देख लो कि शंकरका वरदान सही है या नहीं ! भस्मासुरने विष्णुकी मायासे मोहित होकर अपने सिरपर हाथ रखा तो वह तत्काल भस्म हो गया । इस प्रकार सीधे-सरल होनेसे शंकर किसीपर सन्देह करते ही नहीं, किसीको जानना चाहते ही नहीं, नहीं तो वे पहले ही भस्मासुरकी नीयत जान लेते ।

भगवान्‌ शंकरसे वरदान माँगना हो तो भक्त नरसीजीकी तरह माँगना चाहिये, नहीं तो ठगे जायँगे । जब नरसीजीको भगवान्‌ शंकरने दर्शन दिये और उनसे वरदान माँगनेके लिये कहा, तब नरसीजीने कहा कि जो चीज आपको सबसे अधिक प्रिय लगती हो, वही दीजिये । भगवान्‌ शंकरने कहा कि मेरेको कृष्ण सबसे अधिक प्रिय लगते हैं, अतः मैं तुम्हें उनके ही पास ले चलता हूँ । ऐसा कहकर भगवान्‌ शंकर उनको गोलोक ले गये । तात्पर्य है कि शंकरसे वरदान माँगनेमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिये ।

शंकरकी प्रसन्नताके लिये साधक प्रतिदिन आधी रातको (ग्यारहसे दो बजेके बीच) ईशानकोण (उत्तर-पूर्व) की तरफ मुख करके ‘ॐ नमः शिवाय’ मन्त्रकी एक सौ बीस माला जप करे । यदि गंगाजीका तट हो तो अपने चरण उनके बहते हुए जलमें डालकर जप करना अधिक उत्तम है । इस तरह छः मास करनेसे भगवान्‌ शंकर प्रसन्न हो जाते हैं और साधकको दर्शन, मुक्ति, ज्ञान दे देते हैं ।

नारायण !   नारायण !!   नारायण !!!


–‘साधन-सुधा-सिंधु’ पुस्तकसे