कहीं-कहीं ऐसा भी आता
है कि वैष्णव शिवलिंगको नमस्कार न करे । परन्तु इसका मतलब ऐसा नहीं कि
वैष्णवका शंकरसे द्वेष है । इसका तात्पर्य यह है कि वैष्णवोंके मस्तकपर उर्ध्वपुण्ड्रका जो तिलक रहता है, उसमें
विष्णुके दो चरणोंके बीचमें लक्ष्मीजीका लाल रंगका चिह्न (श्री) रहता है ।
लक्ष्मीजीको शिवलिंगके पास जानेमें लज्जा आती है । अतः वैष्णवोंके लिये शिवलिंगको
नमस्कार करनेका निषेध आया है ।
गोस्वामीजी महाराजने कहा है–
‘सेवक स्वामी सखा सिय पी के ।’
(मानस
१/१५/२)
अर्थात् भगवान् शंकर रामजीके सेवक, स्वामी और सखा–तीनों ही
हैं । रामजीकी सेवा करनेके लिये
शंकरने हनुमान्जीका रूप धारण किया । वानरका रूप उन्होंने इसलिये धारण किया कि
अपने स्वामीकी सेवा तो करूँ, पर उनसे चाहूँ कुछ भी नहीं, क्योंकि वानरको न रोटी
चाहिये, न कपड़ा चाहिये और न मकान चाहिये । वह जो कुछ भी मिले, उसीसे अपना निर्वाह
कर लेता है । रामजीने पहले रामेश्वर शिवलिंगका पूजन किया, फिर लंकापर चढ़ाई की ।
अतः भगवान् शंकर रामजीके स्वामी भी हैं । रामजी कहते हैं–
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास ।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महूँ बास ॥
अतः भगवान् शंकर रामजीके सखा भी हैं ।
भगवान्
शंकर आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होनेवाले) हैं । वे थोड़ी-सी उपासना करनेसे ही प्रसन्न हो जाते हैं । इस विषयमें
अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं । एक बधिक था । एक दिन उसको खानेके लिये कुछ नहीं मिला ।
संयोगसे उस दिन शिवरात्रि थी । रात्रिके समय उसने वनमें एक शिवमंदिर देखा । वह
भीतर गया । उसने देखा कि शिवलिंगके ऊपर स्वर्णका छत्र टँगा हुआ है । अतः उस छत्रको
उतारने लिये जूतीसहित शिवलिंगपर चढ़ गया । इसने अपने-आपको मेरे अर्पण कर दिया–ऐसा मानकर
भगवान् शंकर उसके सामने प्रकट हो गये ।
एक कुतिया खरगोशको मारनेके लिये उसके
पीछे भागी । खरगोश भागता-भागता एक शिवमंदिरके भीतर घुस गया । वहाँ वह शिवलिंगकी
परिक्रमामें भागा तो आधी परिक्रमामें ही कुतियाने खरगोशको पकड़ लिया । शिवलिंगकी
आधी परिक्रमा हो जानेसे उस खरगोशकी मुक्ति हो गयी ।
भगवान् शंकर बहुत सीधे-सरल हैं । भस्मासुरने उनसे यह वरदान
माँगा कि मैं जिसके सिरपर हाथ रखूँ, वह भस्म हो जाय तो शंकरजीने उसको वरदान दे
दिया । अब पार्वतीजीको पानेकी इच्छासे वह उलटे शंकरजीके सिरपर हाथ रखनेके लिये भागा
। तब भगवान् विष्णु उन दोनोंके बीचमें आ गये और भस्मासुरको रोककर बोले कि कम-से-कम
पहले परीक्षा करके देख लो कि शंकरका वरदान सही है या नहीं ! भस्मासुरने विष्णुकी
मायासे मोहित होकर अपने सिरपर हाथ रखा तो वह तत्काल भस्म हो गया । इस प्रकार सीधे-सरल होनेसे शंकर
किसीपर सन्देह करते ही नहीं, किसीको जानना चाहते ही नहीं, नहीं तो वे पहले ही
भस्मासुरकी नीयत जान लेते ।
भगवान् शंकरसे वरदान माँगना हो तो भक्त नरसीजीकी
तरह माँगना चाहिये, नहीं तो ठगे जायँगे । जब नरसीजीको भगवान् शंकरने दर्शन दिये और उनसे वरदान माँगनेके लिये कहा, तब
नरसीजीने कहा कि जो चीज आपको सबसे अधिक प्रिय
लगती हो, वही दीजिये । भगवान् शंकरने कहा कि मेरेको
कृष्ण सबसे अधिक प्रिय लगते हैं, अतः मैं तुम्हें उनके ही पास ले चलता हूँ । ऐसा
कहकर भगवान् शंकर उनको गोलोक ले गये । तात्पर्य है कि शंकरसे वरदान माँगनेमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी
चाहिये ।
शंकरकी
प्रसन्नताके लिये साधक प्रतिदिन आधी रातको (ग्यारहसे दो बजेके बीच) ईशानकोण
(उत्तर-पूर्व) की तरफ मुख करके ‘ॐ नमः शिवाय’ मन्त्रकी एक सौ बीस माला जप करे । यदि गंगाजीका तट
हो तो अपने चरण उनके बहते हुए जलमें डालकर जप
करना अधिक उत्तम है । इस तरह छः मास करनेसे भगवान् शंकर प्रसन्न हो जाते
हैं और साधकको दर्शन, मुक्ति, ज्ञान दे देते हैं ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘साधन-सुधा-सिंधु’
पुस्तकसे
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