।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७७ शुक्रवार
विचार करें..!



साधकको गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिये कि इन्द्रियोंके द्वारा हम जिन विषयोंका अनुभव करते हैं, क्या वे अपने (स्वयं) तक पहुँचते हैं ? वास्तवमें सब विषय शरीरतक ही पहुँचते हैं; परन्तु अपनेको शरीररूप ही माननेके कारण उन्हें गलतीसे स्वयंतक पहुँचते हुए मान लेते हैं । ‘मैं हूँ’ के रूपमें अपनी नित्य सत्ता है और शरीरादि जड वस्तुओंकी सत्ता अनित्य है । इसलिये अपनेतक कोई भी वस्तु नहीं पहुँचती । इसमें भी एक विशेष बात ध्यान देनेकी है कि वस्तुएँ जहाँतक पहुँचती हैं, वहाँ भी वे सदा नहीं रहतीं । अतः साधकको विचार करना चाहिये कि देखने-सुननेमें आनेवाले जितने भी पदार्थ हैं, वे अपनेतक तो पहुँचते नहीं और जहाँतक पहुँचते हैं, वहाँ भी सदा साथ नहीं रहते; अतः उनके द्वारा कबतक सुख लेंगे ? उनके साथ कबतक रहेंगे ? शरीरादि जड पदार्थोंमें परिवर्तन होता है पर अपनेमें परिवर्तन नहीं होता । ऐसे परिवर्तनशील पदार्थोंसे हम कबतक काम चलायेंगे ? उनके भरोसे कबतक रहेंगे ? इस प्रकार यदि साधक विचार करे तो उसकी शीध्र ही उन्नति हो जाय ।

विषयभोग तो अपनेतक नहीं पहुँचता पर उसका सुख और दुःखरूप परिणाम मनुष्य अपनेतक स्वीकार करता है–‘पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।’ (गीता १३/२०) अर्थात् मनुष्य सुख-दुःखके भोगनेमें हेतु बनता है । जैसे मिली हुई वस्तुएँ सदा नहीं रहतीं, वैसे उनसे होनेवाला सुख-दुःख भी सदा नहीं रहता ।

जब मनुष्यको पता लग जाता है कि यह साँप है, तब उसे वह छूता नहीं । भोग भी साँपके समान हैं । भोग भोगना साँपको पकड़नेके सामान ही अनिष्टकारक है । धनादि पदार्थोंका संग्रह करना कूड़ा-करकट इकठ्ठा करनेके समान है । संग्रहसे अपना कोई वास्तविक और सदा रहनेवाला हित सिद्ध नहीं होगा । भोग और संग्रह–दोनों ही अपनेतक नहीं पहुँचते । अतः इनसे अपना बिलकुल भी सम्बन्ध नहीं है ।

भोगोंसे सम्बन्धजन्य सुख होता है और संग्रहसे अभिमानजन्य सुख होता है । इन दोनों सुखोंमें जो आसक्त है अर्थात् इनके पराधीन है, वह कभी पूर्ण सुखी नहीं हो सकता–‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ।’ (मानस १/१०१/३) । वास्तविक सुख स्वाधीन होनेमें ही है । परन्तु भोग और संग्रहमें आसक्त होनेके कारण मनुष्य पराधीनतामें भी सुखका अनुभव करता है । वह सोचता है कि मेरे पास रुपये हैं तो मैं स्वाधीन हूँ पर वास्तवमें वह पराधीन ही है ।