साधकको गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिये कि इन्द्रियोंके
द्वारा हम जिन विषयोंका अनुभव करते हैं, क्या वे अपने (स्वयं) तक पहुँचते हैं ? वास्तवमें
सब विषय शरीरतक ही पहुँचते हैं; परन्तु अपनेको शरीररूप ही माननेके कारण उन्हें
गलतीसे स्वयंतक पहुँचते हुए मान लेते हैं । ‘मैं हूँ’ के रूपमें अपनी नित्य
सत्ता है और शरीरादि जड वस्तुओंकी सत्ता अनित्य है । इसलिये अपनेतक कोई भी वस्तु
नहीं पहुँचती । इसमें भी एक विशेष बात ध्यान देनेकी है कि वस्तुएँ जहाँतक पहुँचती
हैं, वहाँ भी वे सदा नहीं रहतीं । अतः साधकको विचार करना
चाहिये कि देखने-सुननेमें आनेवाले जितने भी पदार्थ हैं, वे अपनेतक तो पहुँचते नहीं
और जहाँतक पहुँचते हैं, वहाँ भी सदा साथ नहीं रहते; अतः उनके द्वारा कबतक सुख
लेंगे ? उनके साथ कबतक रहेंगे ? शरीरादि जड पदार्थोंमें परिवर्तन होता है
पर अपनेमें परिवर्तन नहीं होता । ऐसे परिवर्तनशील पदार्थोंसे हम कबतक काम चलायेंगे
? उनके भरोसे कबतक रहेंगे ? इस
प्रकार यदि साधक विचार करे तो उसकी शीध्र ही उन्नति हो जाय ।
विषयभोग तो अपनेतक नहीं पहुँचता पर उसका सुख और
दुःखरूप परिणाम मनुष्य अपनेतक स्वीकार करता है–‘पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।’
(गीता १३/२०) अर्थात् मनुष्य सुख-दुःखके भोगनेमें
हेतु बनता है । जैसे मिली
हुई वस्तुएँ सदा नहीं रहतीं, वैसे उनसे होनेवाला सुख-दुःख भी सदा नहीं रहता ।
जब मनुष्यको पता लग जाता है कि यह साँप है, तब उसे वह छूता
नहीं । भोग भी साँपके समान हैं । भोग भोगना साँपको
पकड़नेके सामान ही अनिष्टकारक है । धनादि पदार्थोंका संग्रह करना कूड़ा-करकट इकठ्ठा
करनेके समान है । संग्रहसे अपना कोई वास्तविक और सदा रहनेवाला हित सिद्ध
नहीं होगा । भोग और संग्रह–दोनों ही अपनेतक नहीं पहुँचते । अतः इनसे अपना बिलकुल
भी सम्बन्ध नहीं है ।
भोगोंसे सम्बन्धजन्य सुख होता है और संग्रहसे
अभिमानजन्य सुख होता है । इन दोनों सुखोंमें जो आसक्त है अर्थात् इनके पराधीन है,
वह कभी पूर्ण सुखी नहीं हो सकता–‘पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं
।’ (मानस १/१०१/३) । वास्तविक सुख स्वाधीन होनेमें ही
है । परन्तु भोग और संग्रहमें आसक्त होनेके कारण
मनुष्य पराधीनतामें भी सुखका अनुभव करता है । वह सोचता है कि मेरे पास रुपये हैं तो मैं स्वाधीन हूँ पर वास्तवमें वह
पराधीन ही है ।
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