एक स्त्रीने मुझे कहा कि
‘मैं पुरुष होती तो बड़ा अच्छा रहता । मुझे इस बातका दुःख है कि स्त्रीको पुरुषके
पराधीन रहना पड़ता है । स्वाधीन रहनेके कारण पुरुष व्यापर आदिसे अच्छी तरह धन कमा
सकता है पर स्त्री ऐसा नहीं कर सकती !’
मैंने उससे कहा कि ‘तुम धनकी
प्राप्तिमें स्वतन्त्रता मानती हो कि मेरे पास धन आ जाय तो मैं स्वतन्त्र हो जाऊँ
पर बताओ कि धन ‘स्व’ है या ‘पर’ ? उसने कहा कि ‘धन तो ‘पर’ है, ‘स्व’ तो है ही
नहीं ।’
मैंने पूछा कि ‘धनकी
परतन्त्रता और पुरुषकी परतन्त्रता–दोनोंमें सबसे अधिक परतन्त्रता किसकी है ?’ उस स्त्रीकी बुद्धि तेज थी । उसने
तुरंत कहा कि ‘सबसे अधिक परतन्त्रता धनकी ही है ।
इसलिये पुरुषके अधीन रहना अच्छा है ।’
धन तो जड है । उसकी
परतन्त्रतासे तो चेतन पुरुषकी परतन्त्रता ही अच्छी है । पुरुष तो पिता या पति होगा
पर धन पिता या पति नहीं होता । इसमें भी माता, पिता या पतिकी परतन्त्रता हमें
वास्तवमें स्वाधीन बनानेवाली है । उसकी पराधीनतामें भी महान् स्वतन्त्रता भरी पड़ी है ।
एक उनके पराधीन नहीं होनेसे हमें अनेकोंके पराधीन होना पड़ेगा और एक उनके पराधीन
रहें तो हम वास्तवमें स्वाधीन हो जायँगे ।
लोग सोचते हैं कि हमारे
पास लाखों-करोड़ों रुपये हो गये तो हम स्वतन्त्र (बड़े) हो गये पर वास्तवमें वे
महान् परतन्त्र (छोटे) हो गये । यदि धनके कारण हम बड़े हो गये, तो वास्तवमें हम
धनसे छोटे ही हुए । विचार करना चाहिये कि हम चेतन हैं और धन जड है तथा वह धन
भी हमारा ही पैदा किया हुआ है । फिर उस धनके कारण अपनेको बड़ा मानना कहाँतक सही है
?
इस प्रकार साधकको अपने जीवनपर विचार करके पराधीनता (संसार
और शरीरके आश्रय) का त्याग कर देना चाहिये ।
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!!
–‘साधकोंके प्रति’ पुस्तकसे
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