परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें उद्देश्यका महत्त्व
पन्द्रह आना, भावका महत्त्व तीन पैसा और क्रियाका महत्त्व एक पैसा है । परन्तु आजकल साधकोंकी दृष्टी
प्रायः क्रियापर ही है, भावपर नहीं है और
उद्देश्यपर तो है ही नहीं ! अतः उद्देश्यकी महत्तापर विचार किया
जाता है ।
हमारे जीवनका लक्ष्य क्या है ? हमें किसको
प्राप्त करना है ? किस तत्त्वको जानना है ? किसको पहचानना है ? किसका साक्षात्कार
करना है ? ऐसा विचार
होनेपर मनुष्यका यह उद्देश्य होगा कि हमें केवल परमात्माको प्राप्त करना है,
परमात्मतत्त्वको जानना है, परमात्माके साथ अपने नित्य-सम्बन्धको पहचानना है,
परमात्माका साक्षात्कार करना है । कारण कि वही नित्य-निरन्तर रहनेवाला है, दूसरा कोई नित्य-निरन्तर रहनेवाला नहीं
है । संसारका विषय मिले या न मिले, मान मिले या न
मिले, रोटी मिले या न मिले, कपड़ा मिले या न मिले, नींद आये या न आये, आराम मिले या
न मिले, मान हो जाय या अपमान हो जाय, प्रशंसा हो जाय या निन्दा हो जाय, हमें इनसे
कोई मतलब नहीं है; हमें तो केवल परमात्मतत्त्वको ही प्राप्त करना है–
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा
स्तुवन्तु
लक्ष्मीः
समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे
वा
न्यायात्पथः
प्रविचलन्ति पदं न धीराः ॥
(भर्तृहरिनीतिशतक)
‘नीति-निपुण लोग निन्दा करें अथवा स्तुति,
लक्ष्मी रहे अथवा जहाँ चाहे चली जाय और मृत्यु आज ही हो जाय अथवा युगान्तरमें,
अपने उद्देश्यपर दृढ़ रहनेवाले धीर पुरुष न्यायपथसे एक पग भी पीछे नहीं हटते ।’
इस प्रकार जिसका एकमात्र उद्देश्य, ध्येय,
लक्ष्य परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेका बन गया है, वह हरेक जगह टिक नहीं सकेगा । जहाँ रुपये मिलते नहीं, प्रत्युत खर्च होते हैं, वहाँ क्या
रुपयोंका लोभी टिक सकता है ? जिसका परमात्मप्राप्तिका असली उद्देश्य है, उसको क्या
सुन्दर बातें सुनाकर कोई भ्रमित कर सकता है ?
परमात्मतत्त्व क्या है ? मेरा स्वरुप क्या है ? जगतका स्वरुप क्या है ?–ऐसी
जिसकी जोरदार जिज्ञासा है, वह हरेक
कथामें, हरेक व्याख्यानमें टिक नहीं सकता । उसमें ताकत ही नहीं है कि वहाँ ठहर जाय
। अगर ठहर जाता है तो उसका उद्देश्य अभी बना ही नहीं है, चाहे वह कितना ही ऊँचा
पण्डित क्यों न हो !
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