परिवार जितना आपके कहनेमें चलेगा, उतना ही आपके
अधिक बन्धन होगा । जितना ही वह आपका कहना नहीं करेगा, उतना ही छुटकारा होगा, उतनी
ही आपमें स्वतन्त्रता होगी, उतना ही आपको लाभ है । जितना वे कहना अधिक करेंगे,
उतना ही आपको बन्धन होगा । मनुष्यको यह अच्छा लगता है कि दूसरे लोग मेरे अनुकूल चलें, मेरा कहना मानें ।
परन्तु यह बन्धन-कारक है । जहर चाहे मीठा ही हो, पर मारनेवाला होता है । इसी
प्रकार अनुकूलता आपको भले ही अच्छी लगे, पर वह बाँधनेवाली है । वे उच्छृंखलता करें
तो भी आप अच्छे-से-अच्छा बर्ताव करो । वे चाहे उम्रभर
बुरा ही करें तो भी आप उकताओ मत । आपके लिये बहुत ही बढ़िया मौका है । उनके बुरा
करनेपर भी आप अपना बर्ताव अच्छे-से-अच्छा करो ।
एक सज्जन थे । उन्होंने कहा कि आप कुछ भी करो, मेरेको
गुस्सा नहीं आता । आप परीक्षा करके देख लो । दूसरेने कहा कि आपको गुस्सा नहीं आता, बहुत अच्छी बात है । आपको क्रोध
दिलानेके लिये मैं अपना स्वाभाव क्यों बिगाडूँ ? तो सदैव यह भाव रहे कि हम अपना
स्वाभाव अच्छा रखें ।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
(गीता
१८/४५)
अपने कर्त्तव्यका ठीक पालन करो । उसका नतीजा अपने लिये भी
ठीक ही होगा । परिवारके साथ इस तरह बर्ताव करोगे तो लोक और परलोक दोनों सुधरेंगे ।
यहाँ भी आपका भला होगा और वहाँ भी । गीतामें कहा है ‘नायं
लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः’ (४/३१) जो यज्ञ नहीं करता उसका यह लोक भी ठीक
नहीं होता, फिर परलोक कैसे ठीक होगा ? यहाँ ‘यज्ञ’ का
अर्थ कर्त्तव्य-पालन है । अपने कर्त्तव्यका पालन नहीं करता तो इस लोकमें भी सुख
नहीं पाता और परलोकमें भी । जो अपना ही स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, अपना
ही आराम चाहता है, उसका संसारमें भी आदर नहीं होता और पारमार्थिक उन्नति भी नहीं
होती । जो अपने
स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये काम करता है, वह संसारमें भी
अच्छा माना जाता है । परमार्थ भी उसका शुद्ध हो जाता है, वह लोक और परलोक–दोनों
जगह सुख पाता है ।
कुछ लोगोंमें यह धारणा है कि हम आध्यात्मिक
उन्नति करेंगे तो व्यवहार ठीक नहीं होगा और संसारका व्यवहार ठीक करेंगे तो परमार्थ
सिद्ध नहीं होगा । यह धारणा सही नहीं है । गीतामें इन दोनोंका समन्वय है, अच्छा बर्ताव करो तो अपना लोक-परलोक दोनों
सुधर जायेंगे । व्यवहार भी अच्छा होगा और परमार्थ भी अच्छा होगा । व्यवहारमें परमार्थकी कला सीख लो ।
जैसे–एक दयालु जज होता है तो वह न्याय नहीं कर
सकता और न्याय पूरा-का-पूरा ठीक करता है तो दया नहीं कर सकता । दया करे तो
रियायत करने पड़े, तो न्याय नहीं कर सकता और न्याय ठीक-ठीक करे तो दया कैसे होगी ?
परन्तु भगवान्की ऐसी बात है कि भगवान् दयालु भी हैं और
न्यायकारी भी हैं । इन दोनोंमें बाधा नहीं लगती, क्योंकि भगवान्ने कानून ही ऐसे
बनाये हैं कि उस कानूनमें दया भरी हुई है । जैसे भगवान्ने कहा–‘अन्तकालमें
मनुष्य जिसका स्मरण करता है, उसीके अनुसार गति होती है ।’
|