अपने स्वार्थ व अभिमानका त्याग करके ‘सबका हित
कैसे हो’–इस भावनासे बर्ताव करें । परिवारमें रहनेकी यह विद्या है । प्रत्येक काम करनेका एक तरीका होता है, एक विद्या होती है,
एक रीती होती है और उसमें एक चतुराई होती है, उसमें एक कारीगरी होती है । इसी
प्रकार परिवारमें रहनेकी भी एक विद्या है । आप बेटा हो
तो माँ-बापके सामने सपूत-से-सपूत बेटा बन जाओ । जिसके भाई हो तो उसके लिये आप
श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ भाई बन जाओ । जिसके आप पति हो, उसके लिये आप श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ
पति बन जाओ । आप पिता हो तो पुत्र-पुत्रीके लिये श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ पिता बन जाओ ।
जैसा जिसके साथ सम्बन्ध है, उससे आपका श्रेष्ठ सम्बन्ध होना चाहिये । उनके
साथ उत्तम-से-उत्तम बर्ताव करोगे तो वे लोग भी आपसे अच्छा बर्ताव करेंगे, तब
परिवार ठीक रहेगा । आप कह सकते हैं कि परिवारके सब लोग इस तरह सोचेंगे, तब ठीक
होगा, एक आदमी क्या करेगा ? बात ठीक है; परन्तु आप अच्छा
बर्ताव करना शुरू कर दो । उस अच्छे बर्तावके करनेसे परिवारका बर्ताव भी अच्छा होगा
और परिवारमें बड़ी शान्ति होगी ।
आप अपनी तरफसे ठीक बर्ताव करते रहो । उसमें एक और शूरवीरता ले आओ ।
रामायणमें आया है–
उमा संत कइ इहइ
बड़ाई ।
मंद करत जो करइ भलाई ॥
(५/४०/४)
परिवारवाले आपके साथ खराब बर्ताव करें, आपको
दुःख पहुँचावें, आपका अपयश करें, तिरस्कार करें, अपमान करें तो भी आप उनका नुकसान
मत करो, उनको दुःख मत दो । उनको सुख दो, आदर करो, प्रशंसा करो । उनको कैसे आराम
पहुँचे–इस भावसे आप बर्ताव करोगे तो आपका परिवार आपके लिये दुःखदायी नहीं होगा ।
परिवारके सभी आपसमें ठीक बर्ताव करेंगे । इस जमानेमें इस बातकी बड़ी भारी आवश्यकता है ।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
(गीता २/४७)
अपनी ओरसे आप परिवारवालोंके प्रति अपना कर्त्तव्य-पालन करो ।
दो चीजें हैं–एक होता है कर्त्तव्य और एक होता है अधिकार । मनुष्य अधिकार तो जमाता है, कर्तव्य नहीं करता–यह खास बीमारी
है, जिसके कारण संसारमें और परिवारमें खटपट मचती है । वह अपना अधिकार रखना चाहता है और कर्त्तव्य-पालन करनेमें
ढिलाई करता है, उपेक्षा करता है या कर्त्तव्य नहीं करता है । इसीसे गड़बड़ी
होती है । इसलिये अधिकार तो जमाओ मत और कर्त्तव्यमें किंचिन्मात्र भी कमी
लाओ मत । उनके अधिकारकी पूरी रक्षा करो । उनका जो हमारेपर हक लगता है उस हकको ठीक
निभाओ । आप उसपर अधिकार मत जमाओ कि हमारा लड़का है, हमारा कहना क्यों नहीं मानता ?
हमारी स्त्री कहना क्यों नहीं मानती ? भीतरमें यह अधिकार मत रखो । कहना हो तो कह
दो–प्रेमसे, स्नेहसे, आदरसे, अपनेपनसे; पर भीतरमें आग्रह मत रखो कि स्त्री-पुत्र मेरे कहनेमें ही चलें
।
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