असत् पदार्थोंमें जो रुचि है, भोग और संग्रहमें
जो अच्छापन दीखता है और उसको पानेकी जो इच्छा होती है–यही सम्पूर्ण दोषोंकी जड़ है ।
संयोगजन्य सुखकी इच्छा उसीमें पैदा होती है, जो दुःखी है । दुःखी आदमी ही सुखकी इच्छा करता है और सुख भी उसीको मिलता है,
जो दुःखी होता है; जैसे-भोजनका सुख उसीको मिलता है, जो भूखा होता है ।
सुखके बाद दुःख आता है, यह नियम है–‘ये ही संस्पर्शजा भोग
दुःखयोनय एव ते’ (गीता ५/२२) । इस प्रकार सुखके
पहले भी दुःख है और सुखके बाद भी दुःख है–ऐसा समझनेसे सुखकी इच्छाका त्याग हो जाता
है; क्योंकि दुःखको कोई नहीं चाहता । सुखकी इच्छाका त्याग होनेपर स्वतःसिद्ध निर्दोषताका अनुभव हो जाता है ।
निर्दोषता कृतिसाध्य नहीं है ।
निर्दोषताको कृतिसाध्य माननेसे अभिमान आ जाता है, जो सम्पूर्ण दोषोंका आश्रय है । वास्तवमें निर्दोषता स्वतःसिद्ध, स्वाभाविक और सहज है । इस
निर्दोषताकी रक्षा करना साधकका काम है । निर्दोषताकी रक्षा करनेका तात्पर्य
है–ऐसा मान लेनेके बाद फिर कभी दोष आता हुआ दीखे तो ‘हे नाथ ! हे नाथ !!’ कहकर भगवान्को पुकारना
चाहिये । भगवान् अपने शरणागत भक्तोंके
योग और क्षेमका वहन करते हैं–‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता
९/२२) अर्थात् निर्दोषताकी रक्षा करते हैं और आगन्तुक दोषको दूर करते हैं,
फिर हम चिन्ता क्यों करें ? जिसकी कृपासे हमें अपनेमें
निर्दोषताका ज्ञान हुआ है, वही उस निर्दोषताकी रक्षा करेगा–इस प्रकार भगवान्की
कृपाको स्वीकार करनेसे दोषोंका आना-जाना भी रुक जायगा ।
निर्दोषताका अनुभव करनेके
लिये जैसे भगवान्को पुकारना एक उपाय है, ऐसे ही अपनेमें निर्दोषताकी दृढ़ स्वीकृति
भी एक उपाय है । ‘है’ रूपसे अपनी जो सत्ता है, वह सर्वथा निर्दोष है । सत्तामात्रमें कोई दोष,
विकार सम्भव ही नहीं है । उस निर्दोषतामें सबकी स्थिति स्वतः है, स्वाभाविक है,
सहज है, नित्य है और स्वयंसिद्ध है । अपनी इस निर्दोषताको
दृढ़तासे स्वीकार करके बाहर-भीतरसे चुप हो जाय । चुप होनेसे अर्थात् निर्दोष
सत्ताको ही महत्त्व देनेसे दोषोंके सर्वथा अभावका अनुभव स्वतः हो जाता है ।
यह अनुभव एक बार हो जानेपर फिर सदाके लिये वैसा ही रहता है; क्योंकि यह अभ्यास नहीं है,
प्रत्युत वास्तविकताका अनुभव है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘सहज
साधना’ पुस्तकसे
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